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________________ 196 स्वर्ण जयन्ती गौरव-ग्रन्थ हृदय से निकाल देता है। क्षमा की कोई शर्त नहीं होती है। क्षमा करते समय क्या? कौन? क्यों ? और कैसे? जैसे प्रश्न उदित नहीं होते हैं। क्षमा के साथ किन्तु और परन्तु से नहीं जुड़ते हैं। अतः हम पूरी सही और सच्ची क्षमा प्रदान करें। ऐसी क्षमा के पश्चात् भविष्य में पुनः क्षमा करने की कभी भी आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है। ऐसी क्षमा ही पवित्र क्षमा होती है। इस प्रकार क्षमा कर हम अपने संबंधों को घनीभूत बनायें पारस्परिक निकटता बढ़ायें। दोषी व्यक्ति के साथ दुर्भावना के स्थान पर सद्भावना विकसित करें । उसकी कभी बुराई न करें । उसकी सदा भलाई करें। उससे निकटता रखें। 16. प्रतिशोध के लिए आवश्यक क्रोध और दुर्भावना वस्तुतः हमें ही क्षति पहुँचाती है।ठेस पहुँचाने वाले व्यक्ति का स्मरण करते ही हमारा रक्तचाप बढ़ जाता है। हमारे हृदय की धड़कन तेज हो जाती है। हमारे चेहरे की मांसपेशियों में तनाव उत्पन्न हो जाता है। हमारे हाथ-पैरों में पसीना आ जाता है। ठेस पहुँचाने की घटना और ठेस पहुँचाने वाले व्यक्ति का स्मरण ही हमें पीड़ादायक होता है। दूसरी ओर अपराधियों के प्रति सहानुभूति रखने और उन्हें क्षमा करने से हमारी शारीरिक उग्रता कम हो जाती है। तनाव कम हो जाता है। क्षमा करने से हम अधिक स्वस्थ हो जाते हैं। हमारे जीवन में संतोष आ जाता है। घबराहट और बेचैनी कम हो जाती हैं। हमारी सोच सकारात्मक हो जाती है। अतः यह आवश्यक एवं उपयुक्त है कि अपने चतुर्मुखी विकास और आत्म कल्याण के लिए हम दोषी व्यक्ति को क्षमा प्रदान करें। 17. जब हम क्षमा नहीं करते हैं तब नकारात्मक भावना को पाले रहते हैं। ठेस पहुँचाने वाले व्यक्ति के प्रति द्वेष और घृणा की भावना को अपने मन में बनायें रखते हैं । द्वेष और घृणा की ऐसी भावना हमारे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास को विपरीत रूप से प्रभावित करती है। अतः प्रतिशोध लेने के लिए गुस्से की आग को जलाये न रखें। ऐसी आग को बुझाने का प्रयत्न करें। यदि हम गुस्से की आग को बुझा नहीं पाते हैं तो यह आग हमें ही जलाने लगती है। इस आग से हम अनेक बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं। हमारी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। 18. अपने मन में द्वेष की भावना को बनाये रखना और क्षमा नहीं करना अच्छी बात नहीं है। क्षमा न करना बुरी भावना को जन्म देता है। यह बुरी भावना हमारे स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डालती है। बदला लेने की भावना रखने से हम मौसमी बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं। बदला लेने की भावना और ऐसी भावना से उत्पन्न ईर्ष्या और मनमुटाव से हम धीरे-धीरे अवसादग्रस्त हो जाते हैं। दुर्भावना तनाव की जननी है। ऐसी दुर्भावना हमारे तन, मन और धन को क्षति पहुँचाती है। बदला न लेने की भावना पवित्र होती है। बदला लेने की भावना अपवित्र होती है। अतः हम अपवित्र भावना से मुक्त होकर पवित्र भावना अपनायें और शान्ति प्राप्त करें। 19. जब भी हम बुरे अनुभव का स्मरण करते हैं। तब हम अनावश्यक रूप से क्रोध को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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