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स्वर्ण-जयन्ती गौरव-ग्रन्थ
4. -पंडिएसु णेगा विहिदावराधा,
विरुद्ध सासणपरा धण-मीहमाणा। णस्सदि तहवि ण सुविण्णप्पहावो, सव्वं पगासदि ण किं सकलंको वि चंदो?
इस संसार में कुछ पण्डित ऐसे भी होंगे, जो धनागम की अभिलाषा से शासन-विरुद्ध-कार्य करते होंगे, किन्तु इससे सत्पण्डित-वर्ग की छवि क्या धूमिल हो सकती है?
पूर्णमासी के चन्द्रमा में कलंक स्पष्ट दिखाई देता है, फिर भी, क्या वह अपनी समस्त कलाओं के साथ संसार को पूर्ण प्रकाशदान नहीं देता? (4)
5. -माया-पवंच पर-वंचण चंचलस्सिरि.
जस्सामणादराभीदिव णेहि पासं। तम्हा अपाव परिपूरिद माणसं तं, लोहादकुठिद णिहिं सुधिं णमामो।।
चतुर लक्ष्मी अपने जन्म-जात गुण-माया, प्रपंच, पर-वंचना एवं चंचलता के प्रदर्शन के कारण अपने अनादर के भय से ही मानों विरोधी गुणवाले सत्पण्डितों के पास नहीं फटकती। वस्तुतः सत्पण्डितों की सुष्टि ही निराली है।
ऐसे मनस्वी, सरल-हृदय एवं निर्लोभी सत्पण्डित सदा प्रणम्य हैं। (5)
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