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________________ सुपंडिय-पसत्थि (सत्पण्डित-प्रशस्ति) प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन* 1. वंसाणुमोदिद जणाणुमदस्य कचि जे, राया जडो वि होई इह विणा अयासं। पंडियत्तु बुद्धि-विहवेण महस्समेण हि, जादो हि पंडिय राय समत्त णत्थि।। वंश-परम्परानुमोदित (या राजतन्त्रानुमोदित) अथवा प्रजातन्त्रानुमोदित होने के अज्ञानी व्यक्ति भी राज्य-सिंहासन अथवा सत्ता का अधिकारी बन सकता है, किन्त सत्पण्डित तो पूर्वजन्म के सुसंस्कार, सुसंगति, स्वाध्याय, बुद्धि की प्रखरता एवं कठोर परिश्रमपूर्ण साधना से ही बन सकता है। (1) 2. जादी ण जीवदि सुसकिदि अंतरेण, साहित्तमेव परिरक्खदि सकिदी तं। पंडियाहि तं सिजदि तेण बुहो स एगो, णूणं सदा विदहादि जगं समत्थं।। सुसंस्कृति के बिना कोई भी जाति जीवित नहीं रह सकती और सत्साहित्य के बिना संस्कृति सुरक्षित नहीं रह सकती और उस सत्साहित्य का प्रणयन करने वाला सत्पण्डित ही होता है। अतः वही अखिल विश्व का संरक्षक भी हो सकता है। (2) 3. धम्म हि रक्खदि णिरिक्खदि वत्थु - तच्चं, विज्जं वितरदि ण चेच्छदि किचि अण्णं। दइण्णं ण गच्छदि ण माणमपेच्छदी जो, थदि जोग्ग इह सुपडिय पव्व-सग्गो।।। सत्पण्डित ही धर्म की रक्षा कर सकता है। वही वस्तु-तत्व का निरीक्षण भी कर सकता है। सद्विद्या भी वही प्रदान कर सकता है, किन्तु उसके बदले में वह चाहता कुछ भी नहीं। फिर भी, वह दीनता का अनुभव नहीं करता और न मान-सम्मान की अपेक्षा ही करता है। वस्तुतः सत्पण्डित की सृष्टि ही अपूर्व होती है, इस कारण वह सर्वदा स्तुत्य है। (3) * बी-5/40 सी. धवलगिरी, सेक्टर-34, नोएडा (यू. पी.)-210301. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012064
Book TitlePrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali Swarna Jayanti Gaurav Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan Vaishali
Publication Year2010
Total Pages520
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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