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पुरु समर्पित थे पुरु वल्लभ
प.पू. महत्तरा शिशु सा. पीयूषपूर्णा श्री जी म.
ध्यान मूलं गुरॊमूर्ति, पूजा मूलं गुरोर्पदम्, मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यो, मोक्ष मूलं गुरुकृपा
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महाभारत में भील पुत्र एकलव्य की गुरु निष्ठा का प्रेरक प्रसंग आता है, जो आप लोगों ने कई बार पढ़ा होगा और सुना भी होगा। एकलव्य के "मन में धनुर्विद्या सीखने की तमन्ना जगी कि मुझे अपने जीवन में धनर्विद्या की सभी कलाओं को सीखना है। वह बालक अपने हृदय रूपी तिजोरी में। श्रद्धा-समर्पण की सम्पत्ति का संचय कर पाण्डवों और कौरवों के गुरु द्रोण के चरणों में चला जाता है और गुरु चरणों में बैठकर विनम्रता पूर्वक निवेदन करता हुआ, शिक्षा की भिक्षा के लिए याचना करता है। गुरु द्रोण प्रश्न भरी निगाह से उस बालक को देखते हुये पूछते हैं ? "तुम्हारा नाम क्या है और तुम्हारा संबंध किस जाति से है ?” नम्र वाणी में उत्तर देते हुए बालक कहता है “गुरुदेव मेरा नाम एकलव्य है और मेरा संबंध भील जाति से है।" उसी समय आवेश में आकर गुरु द्रोण कहते हैं “मैं निम्न जाति वाले को शिक्षा नहीं देता। शस्त्र और शास्त्र की विद्या नहीं सिखाता, चले जाओ यहां से। गुरु द्रोण ने तिरस्कार भरे शब्दों से अपमान कर उसे निकाल दिया लेकिन उस आदर्श शिष्य ने एक निष्ठा से गुरु की मूर्ति को मन मंदिर में स्थापित कर लिया ।
और वहीं से गुरु चरणों की धूल को माथे पर चढ़ा कर सीधा जंगल में जाता है और वहां पर एक पर्णकुटीर बनाकर तालाब से गीली मिट्टी लाकर हुबहू * गुरु द्रोण की सूरत का ध्यान कर गुरु मूर्ति बनाता है । उसी गुरुमूर्ति का श्रद्धा से ध्यान करता हुआ। “ध्यान मूलं गुरॊमूर्ति" गुरु चरणों की पूजा करता है।।
“पूजा मूलं गुर्गे पदम्” व गुरु के वाक्य को मंत्र स्वरूप मानकर हृदय में धारण करता हुआ भक्ति और समर्पण से अदृश्य में गुरु के आशीर्वाद को प्राप्त । कर धनुष को उठाकर धनुर्विद्या के शरसंधान को करने लगता है। एकलव्य की एकनिष्ठ समर्पण भावना ने उसके जीवन के स्वप्न को साकार कर दिया। वही एकलव्य धनुर्विद्या में इतना पारंगत हो गया कि उसकी धनुर्विद्या के शरसंधान को देखकर पाण्डव पुत्रअर्जुन व गुरुद्रोण स्वयं आश्चर्य में पड़ गये। यह थी मात्र भील पुत्र एकलव्य के दिल की श्रद्धा का चमत्कार। गुरु की कृपा को प्राप्त करने के लिए गुरु की मूरत का ध्यान किया, साक्षात किया। गुरु का । साक्षात्कार किये बिना, उनके पद चरणों की पूजा किये बिना, गुरु के दिल से निकले हुये वाक्यों को मंत्ररूप माने बिना हमारा अपने जीवन में एक कदम तो क्या एक तिल भी आगे बढ़ना संभव नहीं।
'कलिकाल कल्पतरु, अज्ञानतिमिर तरणि, पंजाब केसरी, गुरुदेव श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. | सा. के जीवन के प्रेरक प्रसंग हैं जिन्होंने अपने जीवन की अन्तिम सांस तक गुरु आत्माराम जी का ध्यान । करते हुए साक्षात् मानकर उनके श्रीचरणों की पूजा करते हुये, गुरु के वचनों को मंत्र रूप में धारण किया था। “वल्लभ मेरे प्यारे पंजाब को तू संभालना, हे वल्लभ ! मैंने परमात्मा के मंदिर तो प्रेरणा देकर निर्माण करवा दिये हैं लेकिन तू अब मेरे पीछे परमात्मा के सच्चे पुजारी तैयार करने के लिए सरस्वती मंदिरों की
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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