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'संगठन के लिए वे आचार्य पद तक को भी ।
छोड़ने के लिये तैयार थे। इसी कारण वे 'जैनाचार्य ही नहीं अपितु जनाचार्य सिद्ध हुए। गुरुदेव की वाणी नहीं, जीवन बोलता था।। सचमुच, गुरुदेव जैन समाज के लिए ही नहीं। अपितु जन समाज के प्रेरक थे। इसी कारण वे। जन-जन के वल्लभ बन गए।
मैं कभी-कभी गुरुदेव के कार्यों पर विचार करती हूं तब मेरे मन में न जाने । अनेकों आश्चर्य प्रवाहित हो उठते हैं कि ऐसी। महान् चमत्कारी, प्रभावशाली विशिष्ट शक्ति उन्हें कैसे प्राप्त हुई तब मनवा स्वतः ही बोल उठता है कि गुरुदेव तो वास्तव में देव पुरुष ही थे। ऐसी विशिष्ट शक्ति हासिल करना। मानव के वश में नहीं।
सच, आज के युग में ऐसी विशिष्ट शक्ति के धारक वल्लभ जैसे कोई दूसरे क्रान्तिकारी आचार्य नहीं हुए हैं। तभी तो वे सूरीश्वरों के सिरताज कहलाते थे। जैसे देवों की सभा में इन्द्र, ग्रह गण में चन्द्र, तीर्थो में शत्रुजय, पर्वतों में मेरु पर्वत, मंत्रों में नमस्कार महामंत्र का अद्वितीय स्थान है, वैसे ही गुरु वल्लभ का सूरीश्वरों में अद्वितीय स्थान था। अधिक क्या लिखू। उनका जीवन तो ओरों से
भिन्न था, जो कार्य मन में ठान लेते उसे पूर्ण करने के लिए सर्वस्व समर्पित कर देते। थे। न भूख की परवाह करते, न प्यास की। चाहे सर्दी हो या गर्मी। न शरीर की ओर देखा, न उग्र विहार की ओर देखा। बस जो कार्य करने का संकल्प कर लिया उसे पूर्ण करके ही सन्तोष की सांस लेते।
गुरु वल्लभ ! आपने प्रान्तियों का निवारण किया तो क्रान्तियों का सृजन भी किया। कुशिक्षाओं का उन्मूलन किया तो सुशिक्षाओं का सृजन भी किया। संप्रदायवाद का मर्दन किया तो संगठन का सर्जन भी किया। गुरुदेव ! धन्य हैं आपके जीवन को ? मैं आपकी गुण गरिमा को किन शब्दों में लिखू। मेरे पास ऐसा कोई शब्द नहीं हैं। सच, गुरुदेव आपके जीवन की थाह पाना अत्यंत ही मुश्किल है। तभी तो संत कबीरदास जी की वाणी चरितार्थ होती है
"सब धरती कागद करूं,
लेखनी करूं वनराय सात समुद्र की स्याही करूं,
गुरु गुण लिखा न जाय" धरती रूपी कागज़ पर कल्पवृक्ष की कलम से समुद्र जितनी स्याही से स्वयं सरस्वती भी।
गुरु की महिमा लिखने बैठे तो वह भी गुरु की महिमा लिखने में असमर्थ हैं, तो मैं अज्ञानी अबोध उन महान् गुरु के गुणों का वर्णन करने में कैसे समर्थ हो पाऊंगी।
गुरुदेव के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करती हुई मैं गुरुदेव से प्रार्थना करती हूं कि गुरुदेव मुझे भी ऐसी शक्ति देना कि मैं भी आपके पचिन्हों पर चलकर स्वकल्याण के साथ-साथ परकल्याण में तत्पर बनूं। आइये ! गुरुदेव के स्वर्गारोहण अर्द्धशताब्दी मनाते हुए हम संकल्प करें कि गुणानुवाद के साथ गुणानुसरण करेंगे तभी हम वल्लभ के सच्चे अनुयायी बन पायेंगे।
"हे क्रान्तिकारी ! हे युगवीर ! करते हैं तेरा अभिवादन, राह दिखा दो आकर गुरुवर, प्रतीक्षा में हैं हम प्रतिपल ।
हे द्वितीया के चान्द ! फैल रही अमावस की रात, तड़प रहा समाज तुम्हारा, आ फैलाओ सुनहरा प्रकाश।
हे इच्छा के नन्द ! आ जाओ इस धरा पर, अभिनंदन स्वीकृत कर लो, चरणों में शत् शत् वंदन !"
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
विजय वल्लभ
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