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जालमा
जग वल्लभ
चरणकिंकर हस्तीमल की वंदना
वल्लभ तेरा नाम अनुपम, जग वल्लभ कहलाया। लाखों मनुज का नायक था, तू लाखों का दिल सहलाया।।
गुजरात देश के बड़ौदा नगर में सेठ दीपचंद भाई के घर माता इच्छा देवी की रत्न कुक्षि में जन्म लिया। ज्येष्ठ बन्धु खीमचंद भाई के सान्निध्य में बड़े हुये। परम पूज्य आचार्य श्री विजयानन्द सूरीश्वर जी (आत्माराम जी) का पदार्पण बड़ौदा नगर में हुआ। संसारी नाम छगन लाल ने व्याख्यान सुना, संसार की असारता का ज्ञान हृदय में प्रकट हुआ, आपने गुरुदेव से दीक्षा लेने का निश्चय किया। बड़े भाई ने रोका परंतु अटल श्रद्धा को देखते हुये हां कह दी। राधनपुर में दीक्षा ग्रहण की। गुरुदेव ने छगन लाल का नाम वल्लभ विजय रखा। वहां से गुरुदेवों के साथ विहार करते हुये पंजाब की ओर पधारे। आप श्री की तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा विद्याध्ययन में अग्रसर हुये। सूत्र सिद्धान्त के रसिक बने। पंजाब
र्मास परे किये। 'व्याख्यान वाचस्पति' व 'पंजाब केसरी' विरुद के धारक हुये। गुरुदेव श्री आत्माराम जी महाराज के स्वर्गगमन के पहले पंजाब के संघों ने विनती गुरुदेव से की थी कि हमारे को कौन संभालेगा ?गुरुदेव ने फरमाया था कि मेरे पीछे वल्लभ संभालेगा। गुरुदेव का स्वर्गगमन जेठसुद 7 को हुआ, बाद में गुरुदेव वल्लभ को आचार्य पदवी लेने का बहुत आग्रह किया गया, परंतु विनयादि गुणों से विभूषित गुरुदेव ने मना कर दिया कि मेरे वडील कमल विजय जी विराजमान हैं, वह हमारे नायक हैं।
रत्न अंधेरे में ही प्रकाश देता है। सम्वत् 1981 में गुजरात के संघों और आचार्य देव नेम सूरीश्वर जी म. आदि की प्रेरणा से लाहौर में आपको पंजाब श्री संघ ने आचार्य पदवी से सुशोभित किया। गुरुदेव श्री विजय वल्लभ ने आचार्य पद पर सुशोभित होने के पश्चात् मूर्ति पूजा विषय में कई शास्त्रार्थ किये। पंजाब में नाभा और राजस्थान में बीकानेर
आदि में शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त की। शिष्य-प्रशिष्य समुदाय:
उपाध्याय श्री सोहन विजय जी, आचार्य श्री उमंग सूरीश्वर जी, आचार्य श्री विद्या सूरि जी, आचार्य श्री ललित सूरि जी, आचार्य श्री समुद्र
सूरि जी, आचार्य श्री पूर्णानंद सूरि जी, आचार्य श्री इन्द्रदिन्न सूरि जी, आचार्य श्री ह्रींकार सूरि जी, वर्तमान आचार्य श्री रत्नाकर सूरि जी, आचार्य श्री नित्यानंद सूरि जी, आचार्यों में बडील जनकचंद्र सूरि जी, आचार्य श्री विजय धर्म धुरंधर सूरि जी, आचार्य श्री वीरेन्द्र सूरि जी, आचार्य श्री बसंत सूरि जी आदि हुये।
आप श्री जी भूख व धूप की परवाह न करते हुये शासन की सेवा में हाज़िर रहे। गुरुदेव विजयानंद सूरि का उपदेश था कि 'न धर्मो धार्मिक बिना' इस आशय को लेकर शिक्षा प्रचारक बने, आपने कई स्थानों पर विद्यालय-गुरुकुल आदि पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात आदि में खुलवाये ताकि भावी पीढ़ी धर्म से वंचित न रहे। मौजूदा कार्य सुचारू रूप से चल रहा है। आप श्री का मनोबल :
मेरा साधर्मिक भाई भूखा न रहे। श्रीसंघ में शान्ति और सदभाव बना रहे। फालना कॉन्फ्रेन्स के अधिवेशन में गुरुदेव ने संघ एकता के लिये कहा, "मैं आचार्य पदवी छोड़ने को तैयार हूं।" यह वाक्य बोलते ही भारत के संघों ने युगवीर पद प्रदान किया। ऐसे संत महापुरुष को कोटी-कोटी वंदना। गण : निर्मल. चारित्रवान, शान्तमूर्ति, मृदुभाषी, पराक्रमी, भवभीरु. साधर्मीउद्धारक, युगपुरुष, मरुधर की आंखों के तारे, दीर्घदृष्टा, कुसंपदहन, कवियों के सिरमौर, समवारसभंडार व आचार्य के छत्तीस गुणालंकृत थे। उपदेश : प्राणी मात्र पर दया, धर्म के सात क्षेत्र, श्रावकों को संभालना, सातों क्षेत्र साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका-ज्ञान, जिनमंदिर-जिनमूर्ति ये सबको सिंचन करोगे, तो समाज और धर्म हरा भरा रहेगा। पापी को पापी कहना पाप है, पाप से घृणा करो पाप से नहीं। कोई अपने को गाली देवे। उससे कलह मत करो, देने वाला दानी होता है। भूल करने वाला पुरुष और भूल स्वीकार करने वाला महापुरुष है।
"गुण अनंत हैं आपके, मुख से कहा न जाय, हजार जीभ से जो कहूं, तो भी पूरा न होय।"
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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