________________
जन-वल्लभ आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरिजी की जीवन झाँकी
जवाहर चन्द्र पटनी, एम.ए (हिन्दी, अंग्रेजी)
"ज्ञानांजन-शलाकया
अज्ञान-तिमिरान्धस्य। चतुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवेनमः।”
"जो अज्ञान अंधकार के अंधे बने हुए हैं उनके नेत्रों को ज्ञान की अंजनसलाई लगाकर जिसने खोल दिए हैं, उस गुरु को नमस्कार है।"
दिवंगत आचार्यदेव श्री वल्लभ सरिजी का जीवन ऐसे संत का जीवन था जिसने जीवन-पर्यन्त समाज सेवा की। उनका जीवन रूपी भवन दो सुदृढ़ स्तंभों पर खड़ा है। एक स्तंभ है शुद्ध जीवन तथा दूसरा है। समाजोत्थान की भावना। उन्होंने सर्वप्रथम अपने जीवन को ज्ञान के प्रकाश से अलोकित किया। उनका दृढ़ विश्वास था कि
"ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः कर्मणां तपनात्तप"
-ज्ञान ही वास्तविक तप है, क्योंकि यह कर्म को जलाता है। गुरुदेव
ने अपने पूज्य गुरुदेव श्री वल्लभ) का जन्म हुआ। पिताश्री आत्मारामजी के चरणों में ज्ञानार्जन धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और किया। विद्यादेवी की इन्होंने हृदय से माताश्री धर्म परायणा, सुशील महिला आराधना की और अपने शुद्ध जीवन थीं। माता ने मृत्यु के समय अपने से वे जीवन भर व्यक्ति और समाज के 'लाल' को अपने पास बुलाया और उत्थान में लगे रहे। उनका जीवन अश्रुप्लावित नेत्रों से कहा : दीप-तुल्य था। जहाँ वे जाते प्रकाश ही "प्रिय छगन, मैं इस नश्वर प्रकाश फैलता। प्रकाश के सामने संसार से विदा हो रही हूँ, तू अमर अंधकार कैसे ठहर सकता है? सुख को प्राप्त करने के लिए प्रयास
इस प्रकाशतुल्य जीवन के करना। मैं करुणा सागर प्रभु की बाल्यकालरूपी दर्पण में वह स्पष्ट एवं अमर शरण में तुझे छोड़ कर जा रही उज्ज्वल प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, हूँ।" ये शब्द प्रिय छगन के प्रेरणा स्रोत जिसे देखकर यह सहज ही अनुमान । बने रहे। भाग्य से मिले करुणा मूर्ति लगाया जा सकता है कि ऐसे जीवन ही गुरुदेव आत्मारामजी महाराज जिन्होंने बाद में समाज के अमूल्य रत्न होते हैं। आचार्य वल्लभ के जीवन का निर्माण कार्तिक शुक्ला द्वितीया (भाई दूज) किया। आचार्य श्री आत्मारामजी वि.सं. 1927 के दिन गुजरात प्रान्त सचमुच सुधारक थे। 'वल्लभ' का के बड़ौदा नगर के श्रीमाली परिवार में जीवन मान सरोवर था, चन्द्र प्रकाश सुप्रसिद्ध श्रेष्ठीवर्य श्री दीपचन्द भाई से मानसरोवर चमक उठा। सरोवर के गृह में पूजनीय माता इच्छाबाई की की लहरें उस शीतल एवं चारु प्रकाश पुनीत कुक्षि से छगनलाल (आचार्य में नाच उठीं। सर्वत्र चन्द्र प्रकाश की
"ऐसा आदर्श विश्व विद्यालय स्थापित हो जिसमें जैन दर्शन एवं अन्य दर्शनों का अध्ययन हो तथा मनुष्य अपने जीवन को प्रभु-मन्दिर (Temple ofGod) बना सके। साथ ही साथ वह सुसंस्कारी बन कर देश और समाज की निः स्पृह सेवा भी कर सके। यह विश्वविद्यालय ‘आदर्श कल्पना' (Utopia) नहीं है बल्कि यथार्थविचार का धरातल है। गुरुभक्तों को उनकी इस अभिलाषा की पूर्ति हेतु गम्भीरतापूर्वक योजना बनानी चाहिए। गुरुदेव के शाब्दिक गुणगान करने से कोई गुरुभक्ति सिद्ध नहीं होती। सच्ची गुरुभक्ति तो वही है, जिससे उनके बताये हुए राजपथ पर हम निर्भीक हो कर चल सकें।"
208
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
For Private & Personal Use Only
1500
Education international
www.jainelibrary.org