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अपने पास रख सकता था। साधुओं के उपाश्रय में बहिनें व साध्वियों के उपाश्रय में भाई प्रवचन समय को छोड़कर अकेले नहीं आ जा सकते थे। सूर्यास्त होने पर तो उसका भी पूर्णरूपेण निषेध था।
साधु को प्रतिदिन दोनों समय प्रतिक्रमण व पड़िलेहना करनी आवश्यक थी। कोई भी साधु विहार समय को छोड़कर किसी के घर नहीं ठहर सकता था। किसी के घर जाकर पूजा पाठ नहीं कर सकता था। बिना श्री संघ की रसीद के श्रावकों से पैसा लेकर किसी स्थान पर नहीं भेज सकता था। गुरुदेव जी संयम लेने वाली जीवात्मा को पूर्ण रूप से साधुता में रहना चाहिए, इसका पूर्णतया पालन करवाते थे। वह कहते थे कि यदि साचु स्वयं आचरण युक्त नहीं होगा तो वह ओरों को कैसे आचरण पालन की प्रेरणा देगा ?
गुरुदेव श्रावकों को भी समझाते थे कि जो जीवात्मा श्रद्धा-विवेक से ज्ञान युक्त किया करता है, वही श्रावक कहलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में श्रावक को साधु-सन्तों के माता पिता की उपमा दी गई है। जैसे माता-पिता अपने बच्चों के जीवन उत्थान के लिए, उसे उन्मार्ग से सन्मार्ग में लाने हेतु प्यार से, क्रोध से डंडे आदि से प्रताड़ित करे तो भी वह दोष के अधिकारी नहीं है। क्योंकि इसके पीछे माता-पिता के मन में बच्चों के जीवन के आत्म-उत्थान के लिए शुभ भावना है। इसी तरह श्रावक का यह परम कर्तव्य है कि साधु-सन्त भी यदि उन्मार्गे चले, तो उनको प्यार से या कड़काई से समझाते हुए, “कि गुरुदेव आपने संयम स्वकल्याण व
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परकल्याण हेतु धारण किया है। यह कार्य साथ के करने योग्य नहीं है, कृप्या अपने जीवन में संशोधन करें।"
गुरुदेव जहां साधुओं को पंच महाव्रत का पालन करने के लिए कहते थे, वहाँ श्रावकों को भी श्रावक के 12 व्रत पालन करने के लिए प्रेरणा देते थे । यह भी समझाते थे कि यदि साधु चौथे व्रत से गिर जाता है, तो उसके बाकी के चार व्रतों की भी कोई कीमत नहीं रहती, ऐसा साथ पूर्णरूप से पतन मार्ग की ओर चल पड़ता है। इसी प्रकार जो श्रावक चौथे व्रत से गिर जाता है, तो उसके भी बाकी 11 व्रतों की कोई कीमत नहीं।
साधु-साध्वी, श्रावक - श्राविका चतुर्विध संघ कहलाता है। इसके ऊपर आचार्य होते हैं। आचार्य कितने भी हो सकते हैं लेकिन पट्टधर या गच्छाधिपति एक ही होता है, इनका स्थान सर्वोपरी है अतः चतुर्विध संघ को गच्छाधिपति की आज्ञानुरूप ही उनके मार्गदर्शन अनुसार चलना होता है। ऐसे चतुर्विध संघ को शास्त्रों में पच्चीसवें तीर्थंकर की उपमा दी गई है।
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गुरुदेव जी ने चोर को चोरी करने पर दोषी न ठहराते हुए स्वयं को दोषी ठहराया है। यदि भूखे को व उसके परिवार को भरपेट खाने के योग्य नहीं बना सकते, तो वह गलत क्रियाएं ही करेगा। हमारा कर्त्तव्य है कि कोई भूखा न रहे, कोई अशिक्षित न रहे, यदि इस अनुरूप हम कार्य करते हैं तो हमारे समाज का भविष्य उज्जवल होगा। यही सच्ची साधर्मी भक्ति है। गुरुदेव जी ने इस लक्ष्य को लेकर गुरुकुल, विद्यालय,
विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका
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महाविद्यालय आदि के भारत विभिन्न-विभिन्न प्रदेशों में आरम्भ करवाये। इन शिक्षण संस्थाओं में हमारे बच्चे सुसंस्कारी बने, आज्ञावान बने, समर्पित भाव बने, इसलिए शिक्षण संस्थाओं में व्यावहारिक ज्ञान के साथ-साथ विधि ज्ञान भी अनिवार्य दिया जाता था। जो आज लुप्त हो गया है।
गुरुदेव जी की भावना श्रावक पूर्णरूपेण बने। इसलिए प्रतिदिन श्री मन्दिर जी में जिन पूजा, ज्ञान युक्त बनने के लिए, परमात्मा की वाणी सुनने के लिए उपाश्रय में प्रवचन, दोनों समय प्रतिक्रमण, पर्व तिथि को पौषच, कन्दमूल का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, अभक्ष्य पदार्थों का त्याग आदि करने के लिए तथा अठारह पापस्थानों से बचने के लिए प्रेरणा देते थे। गुरुदेव जानते थे कि यदि श्रावक पूर्ण रूप से जागृत होगा और सही क्रियाएं करेगा तो साधु भी कभी उन्मार्गे नहीं जा सकता।
आज समाज के सामने यह प्रश्न है कि गुरु वल्लभ का युग हम कैसे ला सकते हैं ऐसा सोचने पर हमें क्यों विवश होना पड़ा ?
आज हमारे चरित्रनायक गुरु वल्लभ जी की क्या भावना थी और हम कहाँ जा रहे हैं ? आज हम अपनी मंदबुद्धि से कहते हैं कि गुरुदेव जी की भावनानुसार, समय-काल-भाव अनुसार हमें बदलना चाहिए जो हमारे गुरुदेव श्री आत्माराम जी महाराज ने यति-पूजों को समाप्त करने का अभियान चलाया था, क्या उसके द्वारा निर्माण करने के लिए? क्या साधु मोबाईल फोन अपने पास रखकर समय- बेसमय, योग्य व
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