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गुरु वल्लभ का युग
हम कैसे ला सकते हैं
अरविन्द कुमार जैन अम्बालवी
कलिकालकल्पतरु अज्ञानतिमिर तरणी युगवीर भारत दिवाकर पंजाब केसरी जैनाचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज साहिब भारत की उन विभूतियों में से एक थे जिन्होंने उसके निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आपका जन्म सम्वत् 1927 को बड़ौदा में हुआ व शिक्षा भी बड़ौदा में हुई। श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर जी म. सा. ने सम्वत् 1944 राधनपुर में आपको दीक्षा दी तथा अपने प्रशिष्य श्री हर्ष विजय जी महाराज का शिष्य बनाया। भारत देश के जैन संघों ने आपकी कार्यशैली व सुकृत कार्यों से प्रेरित होकर आपकी इच्छा न होते हुए भी आपको सम्वत् 1981 लाहौर में आचार्य पदवी व पट्टधर पद से सुशोभित किया। आपने सारे भारत देश में प्रचार-प्रसार किया। सम्वत् 2011 आजोस वदी एकादशी पुष्य नक्षत्र में आपका बम्बई में देवलोक गमन हुआ। ___गुरुदेव जी का मिशन प्राणी मैत्री, मानव कल्याण, समाजोद्धार, राष्ट्रीय एकता और विश्वबधुंता था। इसे आप पंचामृत कहते थे। गुरुदेव अहिंसा-संयम-तप के आराधक व सम्यग ज्ञान-दर्शन-चरित्र के साधक थे। आपका जीवन मैत्री-प्रमोद-करूणा व माध्यस्थ भावना से परिपूर्ण था। आप
जब तक श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर जी महाराज के सानिध्य में रहे, प्रतिदिन उनका प्रवचन सुनकर अपने जीवन को आत्म लक्षी बनाते थे। महात्माओं के चरित्र सुनने का मूल्य तभी होता है, जब उनके बताए हुए पचिन्हों पर चलने का प्रयत्न किया जाए। आप इनमें स्वयं पूर्ण थे तथा अपने शिष्यों को पूर्ण होने की प्रेरणा देते थे।
आपका लक्ष्य था, पहले ज्ञान पीछे क्रिया। चतुर्विध संघ को आप प्रेरणा देते थे कि परमात्मा की वाणी अनुसार यदि आप बिना ज्ञान के क्रिया करते हैं, तो वह निष्फल है, उसका कोई महत्व नहीं है। आप स्वयं उच्च कोटि के लेखक, कवि, गायक व संगीत प्रेमी थे। आपने लगभग 2200 स्तवन-सज्झाय- थुई-पूजाएं-छन्द-दोहे आदि लिखकर जैन समाज को नई दिशा दी। आपने शेर की तरह संयम ग्रहण किया व अन्तिम समय तक शेर की तरह संयम का पालन किया। आप अपने गुरुभक्त श्रावकों को कहा करते थे कि आप साधु-सन्तों से जितना दूर रहोगे, उतनी आपकी श्रद्धा-भक्ति उनके प्रति बनी रहेगी।
गुरुदेव जी ने अपने समय काल में साधु-सन्तों को, जो उन्होंने पंच महाव्रत अंगीकार कर संयम लिया था, उसका पूर्ण रूप से परिपालन करने का
निर्देश देते थे। यदि कोई ऐसा नहीं करता था, तो उसको पूर्ण दण्ड देने में भी संकुचाते नहीं थे। वे किसी भी शहर के उपाश्रय में ठहरते थे, तो ऐसे स्थान पर बैठते थे जहां पर उन्हें सभी साधु क्या कर रहे हैं, उनकी पूर्ण जानकारी प्राप्त होती रहे।
कोई भी साधु अलग कमरे में नहीं ठहर सकता था। किसी भी साधु को पोरसी से कम पचक्कखाण नहीं देते थे। यदि कोई साधु नवकारसी का पचक्कखाण लेने जाता था, तो पूछते, "भाई क्या कल आपने उपवास या आयंबिल किया था ?" जो साधु गोचरी लेकर आते थे, बिना गुरुदेव जी को दिखाए नहीं कर सकते थे। कोई श्रावक भी इतना साहस नहीं कर सकता था कि गोचरी उपाश्रय में लाकर वहोरा सके।
कोई भी साधु ज्योतिष-तन्त्र -मन्त्र आदि की जानकारी हेतु शिक्षा ग्रहण कर सकता था, लेकिन इसका उपयोग जनता के लिये नहीं कर सकता था। यदि किसी साधु ने ज्योतिष आदि का उपयोग किया तो उस साधु को अपने परिवार से निष्कासित कर देते थे। अतः उसका बाणा श्रावकों द्वारा उतरवा लेते थे। कोई भी साधु बिजली, पंखा, आदि का उपयोग नहीं कर सकता था। स्वयं टेलीफोन न कर सकता था और न ही
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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