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दिया कि तोप रख देना और कोई आज्ञा का कथन में रहा हुआ त्याग-तप का प्रभाव। लगा। शेर, चीतों की दहाड़ सुनाई दे रही उल्लंघन करे तो उन्हें तोप से उड़ा देना। एक और प्रकरण अंत में गुरुदेव के थी। मैं चिन्तित होकर एक शिला पर बैठ इस आज्ञा से भारी तनाव हो गया। पंजाबी चरणों का चमत्कार यहां लिख रहा हूँ। गया जैसे ही मैं बैठा, मेरे सिर पर एक ठंडे व बीकानेर के भाई तो बहुत प्रसन्न हुए पर गुरुदेव की मुझ पर अपार कृपा और हाथ का स्पर्श हुआ। मैं खड़ा हो गया देखा खरतरगच्छ में सर्वत्र चिन्ता व्याप्त हो गई। विश्वास था और बाहर मिलने-जुलने की सामने आचार्य भगवन्त खड़े हैं। कहने लगे,
__इधर गुरुदेव का प्रवेश बहुत आज्ञा मुझे ही देते थे। उन्होंने मुझे आबू "क्यों डर रहे हो, चलों मैं तुम्हें पहुंचाता हूं धूमधाम से हो रहा था। मैंने उनको पहले ही मंदिर से हणादरा जोकि वहां से तीन-चार और उनके साथ मैं निश्चिन्त होकर चलने सारी स्थिति से अवगत करा दिया था। मील दूर था, वहां मुनिराज श्री शान्ति विजय लगा। बीच में कई विषयों पर बातचीत हुई उन्होंने कहा, “शासनदेव सब ठीक करेगा। जी से मिलकर वापिस सादड़ी पहुंचना, एक और हम लोग बस स्टैंड पर पहुंच गये। बसंती लाल ! सुनो जब श्री पूज्य जी पत्र उनको देकर वापिस उन से उत्तर लाना, गुरुदेव कहने लगे, “देखो ! सामने बस उपाश्रय आवे मुझे बता देना और अपने वह काम तो मैंने कर लिया। सायंकाल का खड़ी है।” मैंने मुड़ कर देखा तो वहां कोई दोनों को उसमें प्रवेश करना है।" मैंने श्री समय था और मुझे आबू पर्वत पहुंचना था, भी नहीं था। मैं अपने स्थान पर पहुंचा और पूज्य जी का उपाश्रय आने की गुरुदेव को सो मैं जाने लगा तो हणादरा के श्रावकों ने गुरुदेव को इस घटना का विवरण सुनाया सूचना दी, पूर्व निर्णय के अनुसार हम दोनों मुझे रोक लिया और पूछा कि आपने और सुनकर वे हँसने लगे। कहने लगे,
समें प्रवेश किया। श्री पुज्य जी बहत मनिराज से जाने की आज्ञा प्राप्त कर ली है, “अब और किसी के सामने इसका जिक्र चिन्तित मुद्रा में बैठे थे। गुरुदेव ने उनसे यदि नहीं तो वापिस जाकर आज्ञा प्राप्त नहीं करना। यह था गुरुदेव का महान् कहा, मैं विजय वल्लभ हूं और आपके पास करो। इधर मैं वापिस उपाश्रय में पहुंचा तो प्रताप।" आया हूं।" श्री पूज्य जी तो अवाक रह गये वहां गुरुदेव नहीं थे। उनका चमत्कारी देह लेख समाप्ति पर मैं यही लिखूगा कि जब उन्होंने गुरुदेव के दर्शन किये उनके । से कहीं भी प्रयाण करना यह वहां प्रसद्धि गुरुदेव ने स्वदेश प्रेम, राष्ट्रीय चरित्र तेजोमय भव्य ललाट प्रकाशमान मुख, था। अन्त में रात्रि निकट देख मैंने गुरुदेव निर्माण, साम्प्रदायिक समन्वय और जैन तपस्या त्याग से भरा हुआ। आभामण्डल को की आज्ञा अनुसार वहां से प्रस्थान कर एकता आदि विषयों से जिस प्रभावशाली देखा तो वे खड़े होकर गुरुदेव के चरणों में दिया। वहां के श्रावकों ने कहा, “आप बिना जन भावना का निर्माण किया और गिर पड़े और कहने लगे, “मैं धन्य हूं और आज्ञा जा रहे हो और रास्ता जंगल वाला रचनात्मक कार्य किये वे हज़ारों वर्षों के
आपके पधारने पर अब मेरे मन में सभी है। आपको शेर, चीते, पेड़ों पर भूत-प्रेत इतिहास में स्वर्ण रेखा के समान सुशोभित मैल धुल गया है और मैं बाहर सब को मिलेंगे और वे आपको खा जायेंगे।" डर तो रहेंगे। उनका आदर्श जीवन ज्योर्तिमय आज्ञा दे रहा हूं कि सभी जुलूस के साथ मैं गया पर मैंने जाने का ही निश्चय किया। जीवन है जिसके प्रकाश में मानवता पथ चलें।" और इस प्रकार सारा प्रकरण आधे रास्ते तक कुछ भी नहीं हुआ और सदा प्रशस्त होता रहेगा। समाप्त हुआ। यह सब प्रताप गुरुदेव के आधे रास्ते में पहुंच कर मुझे डर लगने
श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र-इन्द्रदिन्न-रत्नाकर सद्गुरूभ्यो नमः
विजय वल्लभ अमर रहे
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
विजय वल्लभ
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