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दर्शन-दिग्दर्शन
उपासना करो - मुक्त भावों से ||
- नवरतनमल सुराना, एडवोकेट
भूतपूर्व अध्यक्ष, जैनदर्शन समिति
वस्तुतः हम धोखा दे रहे हैं या धोखे में रह रहे हैं या धोखा खा रहे हैं - यह समझ अभी तक उहापोह में पड़ी है। मनुष्य तो मनुष्य ही है - सत्य तो यही है चाहे उसका कर्म कैसा भी हो। आराध्य की उपासना करो लेकिन दुर्बल बन कर नहीं - साहस से करो। उस समय ऐसा मत सोचो कि भीतर में मलीनता नजर आ रही हो - भला जहां दुर्बलता है भय है, आतंक है, उथल पूथल मच रही है, वहां उपासना किस काम की। उपासना जहां साहसपूर्ण है, प्रेममय है, मलिन भावों से मुक्त है, जहां चिन्ता व आकुलता नहीं है एवं अंधकार से प्रकाश की तरफ अग्रसर है, हृदय में सबलता है - वहा आनन्द ही आनन्द है।
__ भीतर में क्रोध है, भावों में उदारता नहीं है, आसक्ति रोम रोम में भरी पड़ी हैयह भी मेरा है, वह भी मेरा है और जो दूसरों का है वह भी मेरा हो जाये - यह संग्रह की दुष्तृप्ति कूट कूट कर भरी है - एवं भीतर में जहां शोलों की आग लपटें ले रही है वह चाहे कितनी भी उपासना या साधना कर लें निष्फल है। मुझे सुख मिले, दुःख न हो - मुझे किसी भी प्रकार का संकट न आवे, सदा आनन्द में रहूं।
अगर यही ईश्वर से उपासना है तो स्वार्थ जो भीतर मन में है वह कपट से भरा है और जहां कपट है वहां उपासना निरर्थक है। क्यों अपने आप से भागे जा रहे हो - समय की बर्बादी कर रहे हो अपनी कीमत समझो। कपट के सामने अमृत भी जहर बन जाता है। कपट स्वयं को भी डराता है एवं दूसरों को भी। इसलिये उपासना के समय लक्ष्य हमेंशा उच्चता की तरफ ध्यान रखो। भीतर में जितने भी दोष है उन्हें निकाल दो एवं शान्त भाव से, शुद्ध मन से, विकारों से दूर रह कर, निष्क्रिय बनकर दूसरों की भलाई के लिए उपासना करे - जो कभी निरर्थक नहीं होगी।
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