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दर्शन-दिग्दर्शन
ब्राह्मण ही थे। उस जमाने में इन ब्राह्मणों का ज्ञान वेदों के केवल लौकिक अर्थ तक ही सिमट कर रह गया था। भगवान महावीर ने उन्हें पारमार्थिक धर्म का मर्म समझाया। यज्ञ, यज्ञ-कुंड, सामिधा, आहूति आदि की विवेचना कर उन ब्राह्मणों को नए सिरे से इनका अर्थ समझाया। उन ब्राह्मणों को अपनी ऊंची जाति का विद्वता का अभिमान हो गया था। भगवान के दर्शन करने से उनका यह अभिमान जाता रहा। भगवान महावीर की वाणी का जिन गणधरों ने संकलन किया वे तमाम गणधर वेद-वेदांगी में निष्णात ब्राह्मण पंडित ही थे। गणधरों द्वारा संकलित भगवान की वाणी ही जैन आगम के नाम से प्रसिद्ध है, इसे ही जैन सम्यक श्रुति कहते हैं।
। भगवान महावीर की देशना में मानव और मानव के बीच, विभिन्न वर्गों के बीच ऊंच-नीच के लिए कोई जगह नहीं है। उनके अनुसार वही सच्चा ब्राह्मण है जो अपने आपको राग-द्वेष, क्रोध, लोभ, और हास्य-भय से दूर रखता है, सब जीवों में समभाव धारण करता है, जो ब्रह्मचर्य और अकिंचन व्रत का पालन करता है। भगवान महावीर लोगों को ऐसे ब्राह्मण के सान्निध्य में रह कर चिंतन, मनन और निर्दिध्यासन के द्वारा आत्म साक्षात्कार करने का उपदेश देते हैं। भगवान महावीर ने क्षत्रियों को पराया माल हड़पने और आपसी कलह ईर्ष्या, द्वेष और शत्रुता से विरत होने की शिक्षा दी। उन्होने उन्हें वैर-प्रतिवैर की भावना खत्म करने और जितेन्द्रिय बनने का उपदेश दिया। उन्होने बताया कि असली क्षात्र-धर्म निर्दोष प्राणियों का बध करना नहीं है, बल्कि जीवों की रक्षा करना है। उन्होने क्षत्रियों को क्रोध पर क्षमासे, मान पर नम्रता से, यात्रा पर ऋजुता से और लोभ पर निर्मोह से जीत हासिल करने का मार्ग दिखलाया। उन्होने बताया कि अहिंसक-युद्ध में ही समस्त जीवों का उद्धार निहित है।
___ उनके उपदेश से प्रभावित होकर वीरांगक आदि आठ समकालीन राजाओं ने प्रवज्या ग्रहण की थी। अभयकुमार, मेघकुमार जैसे राजकुमारों ने घर-बार छोड़कर साधना का मार्ग अपनाया था । उनके गृहस्थ अनुयायियों में मगधराज श्रेणिक और कुणिक, वैशालीपति चैटक, अवंति नरेश, चंद्रप्रद्योत आदि मुख्य थे। आनंद आदि वैश्य, शकडाल-पुत्र जैसे कुम्हार और अर्जुन माली जैसे लोग भी भगवान के द्वारा निर्दिष्ट धर्म - मार्ग मे प्रवृत्त हुए थे। उनके विहार के मुख्य क्षेत्र मगध, विदेह, काशी, कौशल और वत्स देश थे।
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