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स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
वैज्ञानिकता को संबर्धित करने का उपाय : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
अमूर्त अध्यात्मवादी सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य ने भारतीय संस्कृति के विकास के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को गौण बनाये रखा। इससे भारत के विविधा भरे इतिहास की शैक्षिक एवं विचारजगत में जो दुर्बल स्थिति है, उससे सभी परिचित हैं । विचार क्षेत्र में मध्य युग से वेद, ईश्वर और सर्वज्ञ की धारणाओं ने हमारी मान्यताओं पर चरम सत्य की श्रद्धावादी मुद्रा प्रतिष्ठित कर हमें मानसिकतः अमूर्त जगत में ही बनाये रखा और हमने स्वयं को एवं मूर्त जगत को देखने-जानने का बौद्धिक एवं निरीक्षणात्मक प्रयास भी करना बंद कर दिया। इससे लगभग दसवीं सदी तक जो ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हमारी प्रतिष्ठा थी, वह भी समाप्त प्राय हो गई। इसे पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए ऐतिहासिक और बौद्धिक परिप्रेक्ष का विकास आवश्यक है। इससे एक ओर विचारों के विकास का मूल्यांकन हो सकता है, वहीं बौद्धिक परिप्रेक्ष हमें मूल्यांकन एवं भावी विकास के लिए मार्ग प्रशस्त करता है । विचारों के क्षेत्र में जैनों के अनेकान्तवाद, परमाणुवाद, वनस्पति सजीवतावाद, ऊर्जाओं एवं कणों का पुदगलवाद, भक्ष्याभक्ष्य विचारणा आदि ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, समसामयिक दृष्टि से भी उत्तम कोटि में आते हैं। नैतिक सिद्धांतों की चरम सत्यता की तुलना में, भौतिक जगत संबंधी विवरणों को त्रैकालिक सत्य मानना सही नहीं लगता । इसीलिए हम बीसवीं सदी में बहुत पीछे रह गए हैं। जैन शास्त्रों के भौतिक जगत और घटनाओं से संबंधित विवरणों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वे शास्त्रीय युग में प्रतिष्ठित बने पर अब नगरी और औद्योगिक सभ्यता के युग में उनमें से अनेकों में विसंगतियां और अपूर्णताएं स्पष्ट निरीक्षित होने लगी हैं । मध्ययुग के पूर्व के जैनाचार्यों ने विसंगतियां प्रकट होने पर उन्हें दूर करने हेतु प्रत्यक्ष की द्विविधता, परमाणु की व्यवहार - निश्चयता, प्रमाण की विभिन्न-दोष निवारणी परिभाषा - संशोधनता आदि के समान वैज्ञानिक तर्क एवं व्यवहार - संगत बुद्धिवाद को प्रश्रय दिया। इस युग में भी इसी वृत्ति की आवश्यकता है। प्राचीन सिद्धांतों के ऐतिहासिक दृष्टि से समीक्षण कर उन्हें बीसवीं सदी की बौद्धिक एवं प्रयोगसंगत वैज्ञानिकता देनी चाहिए जैसा ध्यान या प्रेक्षाध्यान के संबंध में किया जा रहा है। इस प्रवृत्ति से ही जैनधर्म की वैज्ञानिकता शीर्षतः प्रतिष्ठित होगी और वह विश्वधर्म होने की क्षमता प्राप्त कर सकेगा।
Jain Education International 2010_03
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