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। स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
समण-संस्कृति
प्राकृत भाषा से निष्पन्न समण शब्द के तीन प्राण तत्त्व हैं - सम - सब मनुष्यों और जीवों को समान समझना । शम - आवेगों, आवेशों पर नियन्त्रण रखना। श्रम - श्रमनिष्ठ एवं स्वावलम्बी जीवन जीना।
कोई भी व्यक्ति छोटा या हीन बनना पसंद नहीं करता, अतः समण संस्कृति का संवाहक किसी के साथ हीनतापूर्ण व्यवहार नहीं करता।
प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन जीना पसंद करता है लेकिन उत्तेजना, आवेश व्यक्ति को तनावग्रस्त एवं असंतुलित बनाकर उसके जीवन को जीर्ण-शीर्ण कर देते हैं। अतः स्वस्थता, मानसिक प्रसन्नता एवं चैतसिक निर्मलता हेतु उपशम का अभ्यास करना अनिवार्य है।
श्रमनिष्ठ व्यक्ति कभी भारभूत नहीं बनता। वह आरोग्य का वरण करता है एवं समाज के लिए उसका जीवन स्वप्रेरित निदर्शन बन जाता है। सम, शम और श्रममय जीवन जीने वाला व्यक्ति अपनी जिन्दगी के प्रत्येक पल को सफल बना लेता है। इच्छा परिमाण
___ आकाश के समान अनन्त इच्छाओं पर संयम का अंकुश लगाने हेतु भगवान महावीर ने इच्छा-परिमाण का सूत्र दिया। स्वस्थ समाज संचरना में इच्छा परिमाण सूत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान युग की अंधी दौड़ ने केन्द्र और परिधि की सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया है। फलतः इन्सान टूटन और घुटन के संत्रास से संकुल हो गया है। असीमित आकांक्षाएं निराशा को जन्म देती है। निराशा दुःख का कारण बनती है। दुःख से बचने के लिए इच्छा-परिमाण सूत्र को जीना जरूरी है। अगर इंसान इच्छाओं का संवरण करना सीख ले तो स्वस्थ समाज के निर्माण की परिकल्पना साकार हो सकती है। इसी बलबूते पर व्यक्ति शांत और सुखी जीवन जी सकता है। सम्यक आजीविका
भोजन जीवन का अनिवार्य अंग है। प्रत्येक गृहस्थ अपनी रोजी रोटी की
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