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स्वः मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
सम्यक दर्शन
सम्यक दर्शन को पारिभाषित करते हुए कहा गया है - अर्हत मेरे देव हैं, उन्होंने राग-द्वेष रूपी कर्म बीज को समूल नष्ट कर दिया है। वे वीतराग हैं।
पंच महाव्रतों के धारक साधु मेरे गुरू हैं, जो वीतराग के परम उपासक हैं । वीतरागता की कक्षा में प्रविष्ट होने के लिए अहर्निश साधनारत हैं।
अर्हत द्वारा प्ररूपित तत्त्व ही मेरा धर्म है, जो वीतरागता का महापथ है। देव, गुरू और धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा ही सम्यक दर्शन है।
संतुलित जीवन जीने के लिए सम्यदर्शन का होना आवश्यक है। इससे सम्यक् दृष्टिकोण का विकास होता है। आग्रह की पकड़ कमजोर बनती है। विनम्रता सहृदयता को पोषण मिलता है। मैत्री और भाईचारे का विकास होता है। मिथ्या दृष्टिकोण जीवन विकास में केवल बाधक ही नहीं अपितु जीवन को कुंठित करने वाला तत्त्व है। सम्यक दर्शन की शैली का स्वीकरण समस्त बाधाओं को निरस्त कर देता है, सम्यक दर्शन प्रकाश का स्पर्शन है, विकास का स्पन्दन है। अनेकांत
व्यक्ति जिस परिधि में जीता है उसका केन्द्र बिन्दु समाज है। वह परिवार एवं समाज से कटकर न टिक सकता है और न ही जी सकता है। प्रत्येक दृष्टि से व्यक्ति सापेक्ष जीवन जीता है। सामुदायिक जीवन को सरसता एवं समरसता देने वाला तत्त्व है अनेकांत। व्यक्ति अपने विचारों को महत्त्व दे, मूल्य दे पर साथ ही दूसरे के विचार को भी समझने की कोशिश करे।
जिसने केवल स्वयं के विचारों को ही सत्य माना, वह न तो सत्य को पा सकता है और न ही जीवन के सम्बन्धों को मृदु बना सकता है। अनेकांतमय जीवन शैली में व्यक्ति का दृष्टिकोण ऋजु एवं नम्र बनता है। उसमें सापेक्ष दृष्टिकोण का प्रकटन होता है। वह जीवन के हर अंधेरे मोड़ को सामंजस्य पूर्ण वातावरण में ढ़ाल कर आलोकित कर लेता है। उसकी मनोवृत्ति समन्वयपूर्ण बन जाती है। तनाव, कुंठा, उत्तेजना के प्रसंग में वह संतुलित बन जाता है।
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