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स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
श्रावकत्व का सुरक्षा कवच
- साध्वी कल्पलता
धर्म शब्द के समुच्चारण से धार्मिकों के जो चेहरे उभरते हैं वे हैं- संन्यासी तापस, महंत, साधु, श्रमण, पोप, पादरी, मौलवी .... आदि । या फिर आंखों के आगे उन लोगों की पंक्ति खड़ी हो जाती है जिन्होंने धर्म प्रचार-प्रसार, उपदेश और प्रशिक्षण का अधिकार हाथ में थाम रखा है। इस संदर्भ में जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का व्यापक दृष्टिकोण सामने आया। उन्होंने आगार और अनगार धर्म का प्रवर्तन कर चातुवर्णिक धर्मसंघ की स्थापना की। उनकी दृष्टि में साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका चारों धर्मसंघ के अंग हैं। दायित्व और साधना का दोनों को समान अधिकार ही नहीं दिया प्रत्युत साधु और श्रावक को अन्योन्याश्रित भूमिका पर प्रतिष्ठित किया है। यही महावीर दर्शन की अपनी निजता है। साधु की तरह श्रावक समाज की अपनी आचार संहिता है, जीवन शैली है, उपासना पद्धति है और धार्मिक कृत्यों की लम्बी श्रृंखला है। आगम ग्रंथों में इस संदर्भ में स्पष्ट विवरण उपलब्ध है, लेकिन प्राकृत भाषा में निबद्ध इन आगम ग्रन्थों का हमारे जीवन से रिश्ता टूट-सा गया है।
आयातित संस्कृति से बदलती हुई जीवन शैली और आर्थिक आपाधापी के वातावरण से श्रावक समाज प्रभावित हुआ है। परिणाम स्वरूप आगम में वर्णित श्रावक की पहचान व्यवहार में लुप्त-सी होती जा रही है। ग्रन्थों में बंद पड़ी श्रावक की चर्या, आचार विचार पद्धति और व्यवहार तालिका को युग भाषा का लिबास पहनाना आवश्यक ही नहीं, युग की मांग प्रतीत हो रही है। युग चेतना गणाधिपति गुरूदेव की दृष्टि में युग-बोध की परख है। आपने सम्प्रदाय को सुरक्षित रखते हुए जैन धर्म को जन-धर्म बनाने का प्रयत्न किया है। अणुव्रत आंदोलन उसका स्पष्ट उदाहरण है। अपने आगमिक, सैद्धांतिक और चारित्रिक पक्ष की उज्ज्वलता को सुरक्षित रखकर विकास के जिन क्षितिजों का स्पर्श किया
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