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दर्शन दिग्दर्शन
पर ही प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया जा सकता है। तप करने वाला पहले सोचता है कि तप का फल क्या होगा? गौतम स्वामी ने भी भगवान महावीर से जिज्ञासा की थी कि भगवन तप करने से जीव को क्या फल मिलता है ?
भगवान ने उत्तर दिया – गौतम ! 'तवेण वोढाणं जणयइ ।' जीव तप से कर्मो का व्यवदान करता है, कर्मो की निर्जरा करता है, कर्मो का क्षय करता है।
तुंगिया नगरी के श्रमणोपासक भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों के पास जाकर पूछते हैं - तवेणं भते किं फले? भगवन ! तप करने से क्या फल मिलता है ? स्थविर श्रमणों ने उत्तर दिया - तवे वोढाण फले। तप का फल है व्यवदान। अनादि काल से आत्मा के कर्म चिपके हुए हैं। कर्मो का आवरण आत्मा पर छाया हुआ है । तप से आवरण दूर हटता हे। आत्मा अपने रूप में प्रकट होती है। जैसे बादलों से ढका हुआ चन्द्रमा बादलों के हटने से दिखाई देता है।
जैन आगमों में अनेक स्थानों पर तप के फल के विषय में एक ही बात कही गई है - वह है आत्मशुद्धि।
आचारंग-नियुक्ति में भद्रबाहु स्वामी ने यही कहा है - 'जह खलु मइलं वत्थं, सुज्झइ उदगाइएएहिं दव्वेहिं । एवं भावुवहाणेण सुज्झए कम्मभट्ठविहं ।'
जैसे मलिन वस्त्र जल आदि द्रव्यों से स्वच्छ निर्मल होता है वैसे ही भावपूर्ण उपधान (बाह्याभ्यन्तर तप) से आत्मा कर्ममल से शुद्ध होती है। शोधक द्रव्य शक्तिशाली होता है तो वस्त्र का सघन और चिकना दाग भी मिट जाता है वैसे ही तप से न केवल इस जन्म के ही कर्म मल दूर होते हैं अपितु जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्म भी तप से क्षीण हो जाते हैं।
साधना का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है तप। तपस्या केवल भूखे रहने का नाम नहीं है, इस प्रक्रिया में व्यक्ति सलक्ष्य अध्यात्म भावना से शरीर को तपाता है, इन्द्रिय संयम करता है, कषायों को उपशमित करता है, कर्म संस्कारों के निर्जरण का पुरुषार्थ करता है। तपस्या जीवन शोधन की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है ।
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