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दर्शन दिग्दर्शन
८. श्राविका सुलसा - यह राजगृह के राजा प्रसेनजित के रथिक नाग की भार्या थी। यह निर्मम नामक सोलहवा तीर्थकर बनेगी।
६. श्राविका रेवती – यह भगवान महावीर के समय एक गृहिणी थी एक बार भगवान महावीर मेढ़िक ग्राम नगर में आए। वहां उनके पित्तज्वर का रोग उत्पन्न हुआ और वे अतिसार से पीड़ित हुए। यह जनप्रवाद फैल गया कि भगवान महावीर गोशालक की तेजोलेश्या से आहत हुए हैं और छह महीनों के भीतर काल कर जाएंगे।
भगवान महावीर के शिष्य मुनि सिंह ने अपनी आतापना-तपस्या संपन्न कर सोचा - 'मेरे धर्माचार्य भगवान महावीर पित्तज्वर से पीड़ित हैं। अन्य तीर्थ यह कहेंगे कि भगवान महावीर गोशालक की तेजोलेश्या से आहत होकर मर रहे हैं । इस चिन्ता से दुखित होकर मुनि सिंह मालुका कच्छ वन में गए और सुबक-सुबक कर रोने लगे। भगवान ने यह जाना और अपने शिष्यों को भेजकर उसे बुलाकर कहा - 'सिंह ! तूने जो सोचा है वह यथार्थ नहीं है। मैं आज से सोलह वर्ष तक केवली पर्याय में रहूंगा। जा. तू नगर में जा। वहां रेवती नामक श्राविका रहती है। उसने मेरे लिए दो कुष्माण्ड फल पकाए हैं। वह मत लाना। उसके धर बिजोरापाक भी बना है। वह वायु नाशक है। उसे ले आना। वही मेरे लिए हितकर है।'
सिंह गया। रेवती ने अपने भाग्य की प्रशंसा करते हुए, मुनि सिंह ने जो मांगा, वह दे दिया। सिंह स्थान पर आया। महावीर ने बीजोरापाक खाया। रोग उपशांत हो गया। इस प्रकार श्राविका रेवती महावीर की स्वस्थता में सहायक बनी।
अठारह पाप क्रियाओं में पांचवीं है परिग्रह। ममत्व भाव से किसी पदार्थ प्राणी का परिग्रहण व संरक्षण परिग्रह है। स्थूल रूप से वस्तु आदि का ग्रहण न भी हो परन्तु यदि किसी के प्रति ममत्व व मूर्च्छी का भाव है तो भाव के स्तर पर तो ग्रहण हो ही जाता है। परिग्रह के दो प्रकार है – १. अन्तरंग परिग्रह २. बाह्य परिग्रह। राग भाव अन्तरंग परिग्रह है। रागभाव से बाह्य पदार्थो का ग्रहण व संग्रह होता है, वह परिग्रह है। प्रधानता अन्तरंग परिग्रह की ही है। उसके न होने पर बाह्य पदार्थ ‘परिग्रह' संज्ञा को प्राप्त नहीं हो सकते। 'दसवेआलियं' का स्पष्ट उदघोष है - मुच्छा परिग्गहो वुत्तो - मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। उसका परित्याग अपरिग्रह है।
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