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स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
|| ममत्व- विसर्जन : अपरिग्रह ||
- महाश्रमण मुदित कुमार
मुक्त आत्मा पूर्णतया विशुद्ध होती है। संसारी आत्मा पूर्ण विशुद्ध नहीं होती। ज्यों-ज्यों आध्यात्मिक विकास होता है, जीव पूर्ण विशुद्धि की दिशा में गतिमान होता है। पूर्ण विशुद्धि (सिद्धावस्था) की प्राप्ति के पूर्व केवलज्ञान की उपलब्धि आवश्यक है। सब केवलज्ञानी तीर्थकर नहीं होते। उनमें से कुछ जीव ही तीर्थकरत्व को प्राप्त होते हैं । भगवान महावीर के समय यही केवली मुनि सैकड़ो थे, परन्तु तीर्थकर एकमात्र भगवान महावीर थे।
तीर्थकरत्व प्रकृष्ट पुण्य प्रकृति के उदय से प्राप्त होता है। श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में नौ जीवों ने तीर्थकर नाम गोत्र कर्म अर्जित किया था। ठाणं में उसका वर्णन प्राप्त है। वह संक्षेप में इस प्रकार है ---
१. श्रोणिक - यह मगध देश का राजा था। यह भरत क्षेत्र (जम्बूद्वीप) में आगामी चौबीसी में महापदम नाम का प्रथम तीर्थकर होगा।
२. सुपार्श्व - ये भगवान महावीर के चाचा थे। ये सूरदेव नाम के दूसरे तीर्थकर होंगे।
३. उदायी – यह कोणिक का पुत्र था। यह सुपार्श्व नाम का तीसरा तीर्थकर बनेगा।
४. पोटिल अनगार - ये स्वयंप्रभ नाम के चौथे तीर्थकर बनेंगे। ५. दृढ़ायु - ये सर्वानुभूति नाम के पांचवें तीर्थकर बनेंगे।
६.७. शंख तथा शतक - ये दोनों श्रावस्ती नगरी के महावीर के श्रावक थे। शंख का जीव उदय नाम का सातवां तीर्थकर और शतक का जीव शतक नाम का दसवां तीर्थकर बनेगा। .
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