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दर्शन दिग्दर्शन
चेतना को जगाना है। खोना नहीं है किन्तु शक्ति का और अधिक विकास करना है । विचार में बड़ी शक्ति है पर उतनी नहीं है, जितनी कि हम मानते रहे हैं । विचार की क्षमता बहुत छोटी है। विचार से अतीन्द्रिय चेतना की क्षमता कहीं ज्यादा बड़ी है। दार्शनिक भाषा में जिसे अवधिज्ञान कहा जाता है, अतीन्द्रिय चेतना या “एक्स्टा सेंसरी परसेप्शन" कहा जाता है, उससे केवलज्ञान की क्षमता और बड़ी है। मन की क्षमता से परे
हम केवल मनस्वी नहीं हैं। मन ही हमारे लिए सब कुछ नहीं है। मन मनुष्य के विकास का एक लक्षण है, किन्तु उससे अधिक हमारी क्षमताऐ हैं। बहुत बार आपने अनुभव किया होगा कि घर में बैठे-बैठे अचानक मन में एक बात आई कि कोई आ रहा है। मेरे परिवार का कोई आदमी या मेरा कोई मित्र आ रहा है, और सचमुच वह सही हो जाती है। इसका कारण क्या है ? कारण हमारी आन्तरिक चेतना है, मन से परे की चेतना है। उसका ही यह काम है। मैंने एक बात सोची और तत्काल वही बात दूसरे ने भी सोची। इधर मैंने कोई बात कही और उधर वही बात दूसरे ने भी बोली। क्या यह मन का काम हैं ? नहीं, यह मन का काम नहीं है। यह विचार-संप्रेषण या टेलीपैथी मन से परे की बात है। पूर्वाभास होना, घटना के बाद का आभास होना, दूसरे के विचार को जान लेना, दूर की बात को जान लेना - यह सारी विचारातीत और मन की क्षमता से परे की बातें हैं। अतिन्द्रिय चेतना कैसे जागे?
क्या हम मन की अपनी क्षमता का चरमबिन्दु मानें ? क्या विचार को हम विकास का एक हेतु मान लें? नहीं, ऐसा मानना हमारी बड़ी भूल होगी। हमारी क्षमता इनसे कहीं ज्यादा है। ध्यान के द्वारा हमें एक नया आयाम खोलना है, अपनी अतीन्द्रिय चेतना को जगाना है। प्रश्न है - वह कब जागेगी ?अतीन्द्रिय चेतना को जगाने की तीन शर्ते हैं।
१. बुरे विचार न आएं। २. अनावश्यक विचार न आएं। ३. विचार बिल्कुल न आएं।
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