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स्व:मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
यहां पर भी उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त प्रसंग गणाधिपति गुरूदेव श्री तुलसी के स्वर्गवास से केवल तीन दिन पहले ही विज्ञप्ति में प्रकाशित हुआ है। गणाधिपति गुरूदेव श्री तुलसी का स्वर्गवास आषाढ़ कृष्ण ३ स. २०५४ (तदनुसार २३ जून १६६७ सोमवार) को गंगाशहर (राजस्थान) में हो गया है।
समाज सेवी के रूप में. उनकी सम्पूर्ण सेवाओं का उल्लेख करना तो सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ प्रमुख गतिविधियों के बारे में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करना चाहूंगा।
जैन दर्शन समिति की स्थापना : उनकी जैन धर्म एवं दर्शन की बहुत बड़ी सेवा है। जैन शासन के प्रति सेवा है। इस समिति में चारों सम्प्रदाय के सज्जनों एवं विद्वानों को सम्मिलित कर उन्होंने भगवान महावीर के अनेकान्तवाद एवं समन्वय के सिद्धान्त को कार्य रूप में परिणत किया है। - वे जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के अध्यक्ष बने। जैन विश्वभारती, लाडनूं की स्थापना उनकी मृत्यु के कुछ वर्ष पहले ही हुई थी। जैन सभा, ओसवाल नवयुवक समिति, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी विद्यालय आदि अन्य अनेक संस्थाओं से भी वे सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे।
मेरा उनसे सम्पर्क आचार्य तुलसी के कलकता चातुर्मास काल में वि. सं. २०१६ (सन १६५६) में हुआ। उस समय मैं कालिम्पोंग से बी. काम. करने के लिए कलकता प्रथम बार आया। संयोग से श्री केवलचन्द नाहटा, मंत्री महासभा शिक्षा विभाग एक बार कलिम्पोंग पधारे थे। मैं कलिम्पोंग में केन्द्र व्यवस्थापक था। उस समय मेरी बातचीत से प्रभावित होकर उन्होंने मुझे कलकता आने पर मिलने को कहा। कलकता में मिलने पर उन्होंने मुझे शिक्षा विभाग में काम करने का मौका दिया। बांठियाजी उस समय महासभा के प्रधान मंत्री थे। अतः उनसे मेरा सम्पर्क निकटता से होगया। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था।। वे मृदुभाषी थे। मैं मेरा अहोभाग्य ही समझता हूं कि एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी पुरूष के साथ मेरा निकट का सम्पर्क रहा एवं कई बार उनके निवास पर भी जाने का मौका मिला।
अन्त में ऐसे व्यक्तित्व को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ उनकी स्मृति में - ‘स्व. मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रंथ' हेतु मेरा यह अल्प अवदान भेंट करता हुआ अपने को धन्य समझता हूं।
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