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मेरी स्मृति में बाऊजी
Jain Education International 2010_03
स्मृतियों को समेटकर संजोकर लिखना आसान काम नहीं है। जीवन का बहुत सा समय सुख-दुःख, आनन्द - वेदना, राग-द्वेष में नदी के बहाव सा गुजर जाता है। उसी में कभी कोई गुण पड़ाव बन जाता है। मेरे जीवन में ऐसा ही एक पड़ाव है, मेरे बाऊजी । सौभाग्यवश मैं एक उन्मुक्त संस्कारी परिवार में पैदा हुई थी । पाछ- पुस्तकों के अलावा हमारे यहां अनेकों मैगजीन लाइफ, पोस्टमेन, रीडर डाइजेस्ट, इलेस्ट्रेटेड वीकली, स्पोर्टस मैगजीन, नवनीत, धर्मयुग, चन्दा मामा, सरिता, माया, मनोहर कहानियां आदि, बंगला का शुकतारा, शिशुसाथी । और बंगला उपन्यास हम काफी खरीदते थे। पाख् पुस्तकों के अलावा भी हमारी ज्ञान वृद्धि हो इसका पूरा ध्यान था बाऊजी को । प्रायः हर आउटडोर व इनडोर गेम हम खेलते । नया कोई भी खेल बाजार में आता तो बाऊजी ले आते और हमारे साथ खेलते । मुझे फूल बहुत प्रिय हैं। बाऊजी जब भी न्यू मार्केट की ओर से आते तो ढेर सारे फूल ले आते। बाऊजी जब फूलों का गुच्छा लेकर सीढ़ी से चढ़ते तो मुझे कितने अच्छे लगते ।
जैन धर्म की पुस्तकें हमारे यहां बहुत थीं। बाऊजी पढ़ते भी थे और शोधकार्य भी करते थे। जैन धर्म बाऊजी के जीवन का अंग था । मुझे चाव था, तो उनमें से पुस्तकें लेकर पढ़ती रहती थी । केवल धर्म के विषम में ही नहीं, किसी भी विषय पर कुछ समझ नहीं आने पर हम समझते कि बाऊजी से पूछने से ही जवाब मिल जायेगा। मेरी मौसीजी जैन धर्म की विदुषीणी थी, बाऊजी से आकर विचार-विमर्श करती रहती थीं ।
बाऊजी लोगों के जमाने में बच्चों से आज जैसा खुलापन का इतना प्रकट व्यवहार नहीं था । उनके प्यार को महसूस करके ही जाना जा सकता था। एक बार की बात है, मेरे सिर में चोट लगी। उसकी मरहम पट्टी बाऊजी करने लगे। बाऊजी के प्यार
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जीवनवृत
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- चन्द्रलेखा जैन
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