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जीवनवत
आजीविका या अतिरिक्त आय के साधन के रूप में करते है। इस युग में यही वर्ग वृद्धित है और मुद्रित-प्रकाशित जैन साहित्य की अभिवृद्धि का तथा अनेक शिक्षा आदि स्वार्थो के चलते रहने का श्रेय इस वर्ग को है। द्वितीय वर्ग के निस्वार्थ साहित्य सेवियों का स्थान इधर यही वर्ग दुतवेग से लेता जा रहा है। इसके अतिरिक्त श्वेताम्वर स्थानकवासी, तेरापंथी आदि सम्प्रदायों में तो साहित्य साधना साधुवर्ग का ही दायित्व रहती आयी है, गृहस्थजनों की उसमें नगण्य सी रुचि रही। बहुत हुआ तो साधुओं की प्रेरणा से ही कभी-कभी जैनाजैन व्यावसायिक पंडितों से काम लिया जाता रहा है। वर्तमान शती में अवश्य ही, इन परम्पराओं में भी, अनेक व्यावसायिक तथा कतिपय निस्वार्थ साहित्य सेवी विद्वान हुए और आज भी है। कलकता निवासी स्व. श्री मोहनलालजी बांठिया ऐसे ही निस्वार्थ साधक थे।
राजस्थान के चूरू कस्वे मे एक मारवाड़ी वैश्य परिवार में जन्मे और महानगरी कलकता में अच्छा ऊंचा व्यवसाय जमाने में सफलीभूत, भरे-पूरे परिवार वाले गृहस्थ सज्जन का, जिनकी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा भी सामान्य सी रही और जो तेरापंथ सम्प्रदाय के अनुयायी रहे, गहन सैद्धान्तिक अध्ययन में स्वान्तः सुखाय अभिरुचि होना और फिर उसका सदुपयोग विशिष्ठ तकनीकी तात्विक साहित्य के निर्माण में करना, सो भी प्रारम्भ में नात्र अपने ही बलबूते पर, एक अत्यन्त श्लाघनीय उपलब्धि है। उसका महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब इस तथ्य पर ध्यान दिया जाय। व्यावसायिक पुरुषार्थ तथा पारिवारिक उत्तरदायित्वों एवं लौकिक कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए और मधुमेह, रक्तचाप, हृदयरोग आदि विषम व्याधियों से ग्रस्त रहते हुए भी वह जीवन के अन्त पर्यन्त अपने उक्त साहित्यिक जीवनोद्देश्य की पूर्ति में जुटे रहे। सन १६०८ ई. में जन्मे और मात्र ६८ वर्ष की आयु में, २३ सितम्बर १६७६ में दिवंगत श्री बांठिया जी का यही संक्षिप्त परिचय है।
___अपनी धुन के पक्के, सरल परिधामी मधुर स्वभावी, विनम्र विद्याव्यसनी बांठिया जी संयोग से हमारे हम उम्र थे, किन्तु जैसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने जितना कुछ सम्पन्न कर लिया, उसके देखते हम उनके समक्ष स्वयं को एक तुच्छ बौना अनुभव करते है। बांठिया जी ने आगमिक एवं अन्य सम्बन्धित प्राकृत-संस्कृत निबद्ध सैद्धान्तिक साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया और अनेक विद्वानों एवं जिज्ञासुओं से सम्पर्क साधा। कई एक अजैन जिज्ञासु विद्वानों की समस्याओं की लेकर उन्होंने यह अनुभव किया कि क्रमबद्ध तथा विषयानुक्रमिक विवेचन का अभाव जैन दर्शन के यथोचित अध्ययन में सबसे बड़ी बाधा है। अतएव विषय विशेष की जानकारी के लिए ग्रन्थों को बार-बार आद्योपान्त
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