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________________ આચાર્ય શ્રી વિજયવલ્લભસૂરિવર [ ૧૧૭ वाला और अपनी हृदयंगत भावनाओंको मूर्तरूपमें लाने वाला " वल्लभ " के सिवाय दूसरा एक भी नहीं हो सका है और न होने वाला है । धन्य है उन दीर्घज्ञानी स्वर्गवासी गुरुदेवको ! और गुरुदेवकी मनोभावनाओं को फलित करने वाले अपने चरितनायकको ! - शिष्यसमुदाय – अपने चरितनायक आचार्य श्री विजयवल्लभसूरिका शिष्य समुदाय भी महान् एवं प्रौढ़ है । आपके समुदाय में खास करके अति प्रभावसम्पन्न उपाध्यायजी महाराज श्री सोहनविजयजी महाराज थे। इनकी कार्यदक्षताके लिये अपने चरितनायकको बड़ा विश्वास था और इनको आप अपनी भुजाके समान मानते थे । इनके देहान्तले आपको बहुत ही आघात पहुँचा था, लेकिन महापुरुष संसारकी वस्तुस्थितिको ध्यानमें लेकर ऐसी बातों को गम्भीरताके साथ पी जाते हैं। आचार्य महाराज श्री विजयललितसूरिजो आपके दूसरे अच्छे विद्वान् एवं प्रभावशाली शिष्य हैं । आपकी वाणी में इतनी मधुरता और प्रसन्नता भरी है जो बड़े बड़े विद्वानों को भी मुग्ध कर लेती है । आपकी उपदेशशैली में प्रभाव है। आपके निजी उपदेशसे उमेदपुर ( मारवाड़ ) में " पार्श्वनाथ उमेद जैन बालाश्रम” स्थापित किया गया है । आपके गुरुदेव अर्थात् अपने चरितनायक के उपदेशसे स्थापित किया हुआ वरकाणाका " पार्श्वनाथ जैन विद्यालय " भी इस समय इनको दक्षता एवं सहायता से प्रतिदिन वृद्धिको पा रहा है । आप भी अपने चरितनायककी भुजाके समान हैं । आपके शिष्य तपस्वीजी श्री विवेकविजयजी महाराज हैं, शान्त स्वभावी हैं एवं निरंतर शास्त्रवाचन और स्वाध्याय - ध्यानमें तत्पर रह कर अपना समय व्यतीत करते हैं । आचार्य श्री विजयविद्यासूरिजी महाराज अपने साथ ही जन्मे और साथ ही दीक्षित हुए अपने लघु भ्राता श्री विचारविजयजीके साथ गुरुदेवकी आज्ञासे कितना ही समय पंजाब में विचरते रहे और गुरुदेवकी अनुपस्थितिमें वहांके उपासकों को धर्मोपदेश द्वारा धर्ममें स्थिर रखते रहे हैं, वे भी हमारे चरितनायक के शिष्य हैं । आचार्य श्री विजयउमङ्गसूरिजी महाराज हमारे चरितनायकके प्रशिष्य हैं, अच्छे विद्वान् हैं और कई बड़े २ ग्रन्थोंका सम्पादन सुचारु रूपसे कर रहे हैं । पंन्यास श्री समुद्रविजयजी महाराज गणि गुरुदेव के अनन्य भक्त प्रशिष्य रत्न हैं । गुरुदेवकी आज्ञाको आप परमात्मा की आज्ञाकी तरह विना ' ननु न च ' किये प्रसन्नताके साथ शिरोधार्य कर लेते हैं । गुरुदेवको भी अपने इस प्रशिष्यके लिए अत्यन्त सन्तोष है और आप इस समय गुरुदेव के साथ ही विचर रहे हैं । इनके अतिरिक्त हमारे चरितनायकके और भी बहुतसे विद्वान शिष्य-प्रशिष्य हैं, जिनका विशद वर्णन इस लेख में कर सकना असम्भव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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