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________________ જ્ઞાનાંજલિ ज्ञानाभ्यास - हमारे चरित नायकने गुरुदेव श्री १००८ श्री विजयानन्दसूरिवरकी चरणछाया में रह कर उनके पास जैन दर्शनविषयक विशिष्ट एवं विविध शास्त्रोंका अध्ययन अवलोकन आदि किया है । इतना ही नहीं किन्तु चरितनायक महापुरुषने गुरुदेवमें रही हुई समयशक्ति एवं गुणोंको अपने अन्दर समाविष्ट कर लिया है । एक तरहसे आज हम यह कह सकते हैं कि ये चरितनायक मानों साक्षात् उन गुरुदेवका प्रतिबिम्ब ही है । इस महापुरुषने उन गुरुदेव की एकता से अहर्निश की हुई सेवाके प्रभाव से उनमें रहा हुआ प्रतिभाशाली ज्ञान, उनका निर्मल चरित्र, उनकी अमोघ धर्मदेशना, उनकी वादलब्धि, उनकी तत्त्वप्रतिपादनशक्ति, उनके क्षमा, गाम्भीर्य आदि गुण, उनका ब्रह्मतेज, तपतेज आदि गुणों को अपने आपमें मूर्त्त कर लिया है। इसके अलावा आप उन गुरुदेवकी चरणोपासनाके प्रभाव से विनयशील, अतिनत्र एवं सरलस्वभावी भी बने हैं । विहार – यद्यपि अपने चरितनायक आचार्यप्रवर श्री विजयवल्लभसूरि महाराजने मारवाड़, मेवाड़, मालवा, गुजरात, दक्षिण आदि अनेकानेक देशोंको अपने चरणस्पर्शसे पावन करते हुए arinी जनताको अपना चारित्र, अपनी अमोघ धर्मदेशनाशक्ति, अपने गाम्भीर्य क्षमा आदि गुणोंका परिचय कराया है, फिर भी आपके विहारका केन्द्रस्थान स्वर्गवासी गुरुदेव श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराजकी अन्तसमयकी आज्ञा और उनको आन्तरिक इच्छाके अनुसार ' पंजाब' ही रहा है और रहेगा । ये महापुरुष अपने जीवनमें गुरुदेवकी तरह सदा अप्रतिबद्ध विहारी हैं, यही नहीं परन्तु जहां आपके जानेसे तनिक मात्र भी लाभ होनेकी संभावना हो वहां चाहे कितना भी दूर हो, विहार करके पहुँचनेके लिए आप कभी कष्ट नहीं मानते । वन्दन हो ऐसे उपकारी धीर पुरुषके चरणों में । ११६] आचार्य पदारोहण के समयकी इच्छा और 1 आचार्य पदारोहण - अपने चरितनायक महापुरुष - जिनका पूर्वमें मुनि श्री वल्लभविजयजी नाम था को स्वर्गवासी गुरुदेवकी अन्त आज्ञा के अनुसार शहर लाहौर में पंजाब श्रीसंघने समुदाय के प्रौढ़ एवं ज्ञानचारित्रवृद्ध महामुनियों की सम्मति से विक्रम संवत् १९८१ मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमीके दिन आचार्य पदप्रदानपूर्वक स्वर्गवासी गुरुदेव के पट्ट पर विराजमान किया है । स्वर्गवासी गुरुदेवके हृदयमें यह बात पक्की जमी हुई थी कि – मेरे बादमें मेरे तैयार किये हुए धर्मक्षेत्रोंको सदाके लिये अगर सिंचन करने वाला कोई भी होगा तो 'मेरा वल्लभ' ही होगा । साथमें आपका यह भी खयाल था कि - अगर मेरे जीवनको भावनाओं को मूर्तस्वरूप देने वाला कोई हो सकता है तो वह भी “ मेरा वल्लभ " ही हो सकता है । यही एक महत्त्व भरा कारण था कि स्वर्गवासी गुरुदेवने अपनी सम्पूर्ण कृपा भविष्यमें महाप्रतापी होने वाले अपने लघु शिष्य -जो अपने चरितनायक हैं - के ऊपर बरसाई। क्या ही आश्चर्यजनक घटना है कि- - उन गुरुदेव के हृदयमें जो विचारांकुर पैदा हुआ था उसके मुताबिक आज तक आपके पाटको दीपाने वाला, अपने बोये हुए धर्मक्षेत्रोंको उपकार-धारासे सिंचन करने Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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