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આચાર્ય શ્રી વિજયવ૯લભસૂરિવર
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चुकी थी । इस समय स्वर्गवासी गुरुदेव श्री १००८ श्री विजयानन्द सूविर ( आत्मारामजी महाराज ) का बड़ोदा शहरमें पधारना हुआ । इन धर्मकथा - लब्धिसम्पन्न परम गुरुदेवकी धर्म|देशनाका असर अपने चरित्रनायक - जिनका शुभ नाम गृहवासमें " छगनलाल " था, - पर खूब पड़ा | उसी समय से आपने अपने जीवनको गुरुदेव के चरणोंमें न्योछावर कर देनेका अपने दिलसे निश्चय कर लिया, अर्थात् दीक्षा ग्रहण करनेका दृढ़ संकल्प कर लिया । और अपने बड़े भाई श्रीयुत स्वमचन्दभाई से अपना निश्चय भी जाहिर कर दिया ।
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संसारमें मोह भी एक बड़ी चीज़ है । बड़े भाईने दीक्षा लेनेसे आपको मना कर दिया, तो भी आप गुरुदेवके साथ रह कर धर्माराधन करने लगे। यह देख कर आपके बड़े भाईको गुरुदेव प्रति असंतोष एवं अविश्वास होने लगा । उस समय गुरुदेवने लाभालाभका विचार करके खीमचंदभाईसे कहा कि जब तक आपकी सम्मति न मिलेगी जब तक “ छगन " को दीक्षा नहीं दी जाय यह विश्वास रखना । अन्तमें आपको दृढ़ वैराग्य भावनाको देख कर, कई महीनों के बादमें, आपके बड़े भाईने गुरुदेव के चरण में क्षमाप्रार्थना के साथ आपको दीक्षा देनेके लिये सम्मति दे दी । स्वौमचंदभाईकी अनुमति मिल जाने पर गुरुदेवने संवत् १९४४ वैशाख शुक्ल १३ के दिन राधनपुर में दीक्षा दी। आपको श्री हर्षविजयजी महाराजका शिष्य बनाया और नाम " मुनि श्री वल्लभविजयजी " रक्खा गया ।
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सुशिष्यत्व -- आप जन्मसंस्कारसम्पन्न आत्मा होनेसे एवं आपको अपनी माताकी ओरसे धर्मके दृढ़ संस्कारोंका वारसा मिलनेके कारण आपमें अनेकानेक गुण भरे थे । फिर भी भविष्य में उन्हें महापुरुष होनेके लिये जिन गुणों की आवश्यकता थी वे सर्वशास्त्रपारंगत धर्मधुरंधर सर्वगुणसम्पन्न गुरुदेव श्री १००८ श्री विजयानन्दसूरिवरकी छायामें प्राप्त हो गए । गुरुदेव को भी अपने इस लघुतम शिष्यकी सहज विनयशीलता, बुद्धि, कार्यदक्षता आदिका परिचय अल्प समय में ही हो गया । अतः आपने अपने महत्त्व के धर्मकार्योंका भार इनके ऊपर डाल दिया । आपके लिए गुरुदेवके अंतःकरणमें अनेकानेक शुभ आशायें थी । यही कारण था कि उन गुरुदेवने अपने इस गुणगुरु लघु शिष्य के प्रति अपनी असीम कृपाकी धारा बहाई थी । आपके हृदय में यह भी प्रतीत हो गया था, कि आप जैनधर्म एवं जैन समाजकी उन्नतिके लिए जो कुछ करना चाहते हैं उसकी पूर्णाहुति इस लघु शिष्य के द्वारा होने वाली है । इसी अटल विश्वासके कारण अपने देहान्त होने के समय आपने पंजाब - श्रीसंघके समक्ष अपने इस लघु शिष्यको आचार्य पदसे सम्मानित करने की शुभ आशा प्रकट की थी । सचमुच ही जगतमें ऐसा गुरु-शिष्य सम्बन्ध धन्य है, जहाँ शिष्य अपने विशिष्ट गुणोंके द्वारा गुरुदेवके हृदयको अपनी तरफ कर लेता है और गुरुदेव अपने गुणविभूषित विनीत शिष्य को देख कर प्रसन्न होते हैं ।
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