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જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય
[४८ लक्ष्यमें रखकर रचे गये हैं. जिनकी नियुक्तियाँ नहीं हैं, उनके भाष्य सूत्रको ही लक्षित करके रचे गये हैं. उदाहरण रूपमें जीतकल्पसूत्र और उसका भाष्य समझना चाहिए. महाभाष्यके दो प्रकार हैं- पहला प्रकार विशेषावश्यक महाभाष्य, ओघनियुक्ति महाभाष्य आदि हैं, जिनके लघुभाष्य नहीं हैं. वे सीधे नियुक्तिके ऊपर ही स्वतंत्र महाभाष्य हैं. दूसरा प्रकार लघुभाष्यको लक्षित करके रचे हुए महाभाष्य हैं. इसका उदाहरण कल्पबृहद्भाष्यको समझना चाहिए. यह महाभाष्य अपूर्ण ही मिलता है. निशीथ और व्यवहारके भी महाभाष्य थे, ऐसा प्रयोष चला आता है, किन्तु आज वे प्राप्त नहीं हैं. निशीथ महाभाष्यके अस्तित्वका उल्लेख बृहट्टिप्पनिकाकार - प्राचीन ग्रंथसूचीकारने अपनी सूचीमें भी किया है.
ऊपर जिन महाकाय भाष्य - महाभाष्यका परिचय दिया गया है उनके अलावा आवश्यक, ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, दशवैकालिक सूत्र आदिके ऊपर भी लघुभाष्य प्राप्त होते हैं. किन्तु इनका मिश्रण नियुक्तियोंके साथ ऐसा हो गया है कि कई जगह नियुक्ति-भाष्यगाथा कौन-सी एवं कितनी हैं:-इसका निर्णय करना कठिन हो जाता है. इसमेंसे भी जब मैंने आवश्यकसूत्रकी चूर्णि और हारिभद्री वृत्तिको देखा तब तो मैं असमंसजमें पड़ गया. चूर्णिकार कहीं भी 'भाष्यगाथा' नामका उल्लेख नहीं करते हैं, जबकि आचार्य हरिभद्र स्थान-स्थान पर 'भाष्य और मूलभाष्य 'के नामसे अवतरण देते हैं. आचार्य श्री हरिभद्र जिन गाथाओंको मूलभाष्यकी गाथाएं फरमाते हैं उनमेंसे बहुत-सी गाथाओंका उल्लेख या उन पर चूर्णि चूर्णिकारने की ही नहीं है. यद्यपि उनमेंसे कई गाथाओंकी चूर्णि पाई जाती है, फिर भी चूर्णिकारने कहीं भी उन गाथाओंका 'मूलभाष्य' के रूपमें उल्लेख नहीं किया है. प्रतीत होता है कि - आचार्य श्री हरिभद्रने दशवकालिकनियुक्तिकी तरह इस वृत्तिमें काफी गाथाओंका संग्रह कर लिया है.
चूर्णि-विशेषचूर्णि - आचारांग, सूत्रकृतांग. भगवतीसूत्र, जीवाभिगम, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापनासूत्र, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, जीतकल्प, आवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, पिंडनियुक्ति, नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार-अंगुल-पदचूणि, श्रावकप्रतिक्रमण ईर्यापथिकी आदि सूत्रइन आगमोंकी चूर्णियाँ अभी प्राप्त हैं. निशीथसूत्रकी आज विशेष चूर्णि ही प्राप्त है. कल्पकी चूर्णि-विशेषचूर्णि दोनों ही प्राप्त हैं. दशवैकालिकसूत्रकी दो चूर्णियां प्राप्त हैं. एक स्थविर अगस्त्यसिंहकी
और दूसरी अज्ञातकर्तृक है. आचार्य श्री हरिभद्रने इस चूर्णिका 'वृद्धविवरण' नाम दिया है. अनुयोगद्वारसूत्रमें जो अंगुलपद है उस पर आचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने चूर्णि रची है. चूर्णिकार श्री जिनदासगणि महत्तर और आचार्य श्री हरिभद्रने अपनी अनुयोगद्वारसूत्रकी चूर्णि-वृत्तिमें श्रीजिनभद्रके नामसे इसी चूर्णिको अक्षरशः ले लिया है. ईयोपथिकीसूत्रादिकी चूर्णिके प्रणेता यशोदेवसूरि हैं, इसका रचनाकाल सं० ११७४ से ११८० का है. श्रावक प्रतिक्रमणचूर्णि श्री विजयसिंहसूरिकी रचना है, जो वि० सं. ११८२ की है.
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