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________________ [ ર૭ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય प्रशिष्योका समुदाय संख्या में बड़ा था. उनमें जो विद्वान् शिष्य थे उन सबमें दुर्बलिकापुष्यमित्र अधिक बुद्धिमान् एवं स्मृतिशाली थे. वे कारणवशात् कुछ दिन तक स्वाध्याय न करनेके कारण ११ अंग, पूर्वशास्त्र आदिको और उनकी नयगर्मित चतुरनुयोगात्मक व्याख्याको विस्मृत करने लगे. इस निमित्तको पाकर स्थविर आर्य रक्षितने सोचा कि ऐसा बुद्धिस्मृतिसम्पन्न भी यदि इस अनुयोगको भूल जाता है तो दूसरेकी तो बात ही क्या ? ऐसा सोचकर उन्होंने चतुरनुयोगके स्थान पर सूत्रोंकी व्याख्यामें उनके मूल विषयको ध्यानमें रखकर किसी एक अनुयोगको हो प्राधान्य दिया और नयों द्वारा व्याख्या करना भी आवश्यक नहीं समझा. वक्ता व श्रोताकी अनुकुलताके अनुसार ही नयों द्वारा व्याख्या की जाय, ऐसी पद्धतिका प्रचलन किया. तदनुसार विद्यमान आगमोंके सूत्रों को उन्होंने चार अनुयोगोंमें विभक्त कर दीया जिससे तत्-तत् सूत्रकी व्याख्या केवल एक ही अनुयोगका आश्रय लेकर हो. जैसे आचार, दशवकालिक आदि सूत्रो की व्याख्यामें केवल चरणकरणानुयोगका ही आश्रय लिया जाय, शेषका नहीं. इसी प्रकार सूत्रोंको कालिक-उत्कालिक विभागमें भी बांट दिया. (१३) कालिकाचार्य (वीर नि० ६०५के आसपास)-पंचकल्पमहाभाष्यके उल्लेखानुसार ये आचार्य शालिवाहनके समकालीन थे. इन्होंने जैनपरम्परागत कथाओंके संग्रहरूप प्रथमानुयोग नामक कथासंग्रहका पुनरुद्धार किया था. इसके अतिरिक्त गंडिकानुयोग और ज्योतिषशास्त्रविषयक लोकानुयोग नामक शास्त्रोका भी निर्माण किया था. जैन आगमग्रंथोंकी संग्रहणियों की रचना इन्हींकी है. जैन आगमों के प्रत्येक छोटे-छोटे विभागमें जिन-जिन विषयोंका समावेश होता था उनका बीजरूप संग्रहं इन संग्रहणी गाथाओंमें किया गया है. एक प्रकारसे इसे जैन आगमोंका विषयानुक्रम ही समझना चाहिए. आज यह संग्रह व्यवस्थितरूपमें देखनेमें नहीं आता है, तथापि संभव है कि भगवती, प्रज्ञापना, आवश्यक आदि सूत्रों की टीकाओंमें टीकाकार आचार्योने प्रत्येक शतक, अध्ययन, प्रतिपत्ति, पद आदिके प्रारम्भमें जो संग्रहणी गाथाएँ दी हैं वे यही संग्रहणी-गाथाएँ हों. (१४) गुणधर (वीर नि० ६१४-६८३के बीच)- दिगम्बर आम्नायमें आगमरूपसे मान्य कसायपाहुडके कर्ता गुणधर आचार्य हैं. उनके समयका निश्चय यथार्थरूपमें करना कठिन है. पं० हीरालाल जीका अनुमान है कि ये आचार्य धरसेनसे भी पहले हुए हैं. (१५) आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त व भूतबलि (वीर नि० ६१४-६८३के बीच ?)दिगम्बर आम्नायमें षट्खंडागमके नामसे जो सिद्धान्तग्रन्थ मान्य हैं उसका श्रेय इन तीनों आचार्योको हैं. जिस प्रकार भद्रबाहुने चौदहपूर्वका ज्ञान स्थूलभद्र को दिया उसी प्रकार आचार्य धरसेनने पुष्पदन्त और भूतबलिको श्रुतका लोप न हो, इस दृष्टिसे सिद्धान्त पढ़ाया जिसके आधार पर दोनोंने षदखण्डागमकी रचना की. इनका समय वीरनिर्वाण ६१४ व ६८३के बीच है, ऐसी संभावना की गई है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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