SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ જ્ઞાનાંજલિ वृत्तिका आदि-अन्तिम भाग छूट गया हो. जैसलमेरके ताड़पत्रीय संग्रहको ज्योतिष्करंडक मूलसूत्रकी प्रतिमें इसका आदि और अन्तका भाग नहीं है. आचार्य मलयगिरिको ऐसे ही कुलकी कोई खंडित प्रति मिली होगी जिससे अनुसंधान करके उन्होंने अपनी वृत्तिकी रचना की होगी. इन आचार्यने 'शत्रुजयकल्प'की भी रचना की है. नागार्जुनयोगी इनका उपासक था. इसने इन्हीं आचार्यके नामसे शत्रुजयमहातीर्थकी तलहटीमें पादलितनगर पालीताणा] वसाया था, ऐसी अनुश्रुति जैन ग्रन्थों में पाई जाती है. (१२) आर्यरक्षित (वीर नि० ५८४में दिवंगत) --- स्थविर आर्य वज्रस्वामी इनके विद्यागुरु थे. ये जैन आगमों के अनुयोगका पृथक्त्व-भेद करनेवाले, नयों द्वारा होने वाली व्याख्याके आग्रहको शिथिल करनेवाले और अनुयोगद्वारसूत्रके प्रणेता थे. प्राचीन व्याख्यानपद्धतिको इन्होंने अनुयोगद्वारसूत्रकी रचना द्वारा शास्त्रबद्ध कर दिया है. ये श्री दुर्बलिकापुष्यमित्र, विन्ध्य आदिके दीक्षागुरु एवं शिक्षागुरु थे. यहाँ पर प्रसंगवश अनुयोगका पृथक्त्व क्या है, इसका निर्देश करना उचित होगा. अनुयोगका पृथक्त्व कहा जाता है कि प्राचीन युगमें जैन गीतार्थ स्थविर जैन आगमोंके प्रत्येक छोटे बड़े सूत्रोंकी वाचना शिष्यों को चार अनुयोगोंके मिश्रणसे दिया करते थे. उनका इस वाचना या व्याख्याका क्या ढंग था, यह कहना कठिन है फिर भी अनुमान होता है कि उस व्याख्या में - (१) चरणकरणानुयोग-जीवनके विशुद्ध आचार, :(२) धर्मकथानुयोग --- विशुद्ध आचारका पालन करनेवालोंको जीवन-कथा, (३) गणितानुयोग --- विशुद्ध आचारका पालन करनेवालोंके अनेक भूगोल-खगोलके स्थान और (४) द्रव्यानुयोग-विशुद्ध जीवन जीने वालोंको तात्त्विक जीवनचिन्ता क्या व किस प्रकारकी हो, इसका निरूपण रहता होगा और वे प्रत्येक सूत्रकी नय, प्रमाण व भंगजालसे व्याख्या कर उसके हार्दको कई प्रकारसे विस्तृत कर बताते होंगे. समयके प्रभावसे बुद्धिबल व स्मरणशक्तिकी हानि होनेपर क्रमश: इस प्रकारके व्याख्यानमें न्यूनता आतो ही गई जिसका साक्षात्कार स्थविर आर्य कालक द्वारा अपने प्रशिष्य सागरचन्द्रको दिये गये धूलिपुंजके उदाहरणसे हो जाता हैं. जैसे धूलिपुंजको एक जगह रखा जाय, फिर उसको उठाकर दूसरी जगह रखा जाय, इस प्रकार उसी धूलिपुंजको उठा-उठाकर दूसरी-दूसरी जगह पर रखा जाय. ऐसा करने पर शुरूका बड़ा धूलिपुंज अन्तमें चुटकीमें भी न आवे, ऐसा हो जाता है. इसी प्रकार जैन आगमोंका अनुयोग अर्थात् व्याख्यान कम होते-होते परम्परासे बहुत संक्षिप्त रह गया. ऐसी दशामें बुद्धिबल एवं स्मरणशक्तिकी हानिके कारण जब चतुरनुयोगका व्याख्यान दुर्घट प्रतीत हुआ तब स्थविर आर्यरक्षितने चतुरनुयोगके व्याख्यानके आग्रहको शिथिल कर दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने प्रत्येक सूत्रकी जो नयोंके आधारसे तार्किक विचारणा आवश्यक समझी जाती थी उसे भी वैकल्पिक कर दिया. श्रीआर्यरक्षितके शिष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy