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________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય [ २५ 46 ― 'किंच आदेसा जहा - अज्जमंगू तिविहं संखं इच्छति, एगभवियं बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च. अज्जसमुद्दा दुविहं, बद्धाउयं अभिमुहनाम-गोत्तं च अज्जसुहत्थी एगं अभिमुहणाम - गोयं इच्छति " ये तीन महापुरुष जैन आगमोंके श्रेष्ठ ज्ञाता माननीय स्थविर थे. (११) पादलिप्ताचार्य ( वीर नि० ४६७ के आसपास ) - इन आचार्यने तरंगवई नामक प्राकृत-देशी भाषामयी अति रसपूर्ण आख्यायिकाकी रचना की है. यह आख्यायिका आज प्राप्त नहीं है किन्तु हारिजगच्छीय आचार्य यश ( ? ) रचित प्राकृत गाथाबद्ध इसका संक्षेप प्राप्त है. डा० अर्न्स लॉयमानने इस संक्षेपमें समाविष्ट कथांशको पढ़कर इसका जर्मनमें अनुवाद किया है. यही इस आख्यायिकाकी मधुरताकी प्रतीति है. दाक्षिण्यांक उद्योतनसूरि, महाकवि धनपाल आदिने इस रचनाकी मार्मिक स्तुति की है. इन्हीं आचार्यने ज्योतिष्करंडकशास्त्रकी प्राकृत टिप्पनकरूप छोटी सी वृत्ति लिखी है. इसका उल्लेख आचार्य मलयगिरिने अपनी सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति में (पत्र ७२ व १००) और ज्योतिष्करंडकवृत्ति में (पत्र ५२, १२१,२३७) किया है. यद्यपि आचार्य मलयगिरिने ज्योतिकरंडक - वृत्तिको पादलिप्ताचार्यनिर्मित बतलाया है किन्तु आज जैसलमेर और खंभातमें पंद्रहवीं शतीमें लिखी गई मूल और वृत्ति सहित मूलकी जो हस्तप्रतियाँ प्राप्त हैं उन्हें देखते हुए आचार्य मलयगिरिके कथनको कहाँ तक माना जाय, यह मैं तज्ज्ञ विद्वानों पर छोड़ देता हूँ. उपर्युक्त मूलग्रन्थ एवं मूलग्रन्थसहित वृत्तिके अंतमें जो उल्लेख हैं वे क्रमश: इस प्रकार हैं : कालण्णाणसमासो पुग्वायरिपहिं वण्णिओ एसो । दिणकर पण्णत्तीतो सिस्सजणहिओ सुहोपायो || पुष्वायरियकयाणं करणाणं जोतिसम्मि समयम्मि | पालित्तण इणमो रहया गाहाहिं परिवाढी ॥ कालण्णाणसमासो पुव्वायरिपहिं नीणिओ एसो । दिणकरपण्णत्तीतो सिस्सजणहिओ पिओ ......U नीतिसमसमपणं । पालित्तरण इणमो रइया गाहाहिं परिवाडी ॥ ॥ णमो अरहंताण ॥ वायर कालण्णाणस्लिणमो वित्ती णामेण चंद [ ? लेह ] त्ति । सिवनं दिवायगेहिं तु रोयिगा ( रइया) जिणदेवगति हेतूणं (? गणिहेतुं ) ॥ ॥० १५८० ॥ - ज्योतिष्करण्डकवृत्ति प्रान्त भाग. ---ज्योतिष्करण्डक प्रान्त भाग, इन दोनों उल्लेखों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि मूल ज्योतिष्करंडक प्रकीर्णक के प्रणेता पादलिताचार्य हैं और उसकी वृत्ति, जिसका नाम 'चन्द्र [लेखा ] ' है, शिवनन्दी वाचककी रचना है. आचार्य मलयगिरिने तो सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति एवं ज्योतिष्करंडक - वृत्ति में इस वृत्तिके प्रणेता पादलिप्सको कहा है. संभव है, आचार्य मलयगिरिके पास कोई अलग कुलकी प्रतियाँ आई हों जिनमें मूलसूत्र और * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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