________________
૨૮ ]
જ્ઞાનાંજલિ
(१६, १७) आर्य मंक्षु और नागहस्ति – कषायपाहुडकी परम्पराको सुरक्षित रखनेका विशेष कार्य इन आचार्योंने किया और इन्हींके पास अध्ययन करके आचार्य यतिवृषभने कसायपाहुडकी चूर्णिकी रचना की थी. इन आचार्योंको नंदीसूत्रकी पट्टावली में भी स्थान मिला है.
नंदी सूत्रकारने आर्य मंगु और नागहस्तिका वर्णन इस प्रकार किया है :
भणगं करगं झरगं पभावगं णाण- दंसण-गुणार्ण । वंदामि अज्जमंगुं सुयसागर पारगं धीरं ॥२८॥ णाणम्मि दंसणम्मि य तव विणए णिच्चकालमुज्जुतं । अजाणंदिलखमणं सिरसा वंदे पसण्णमणं ॥ २९ ॥ वड्ढउ बायगवंसो जसवंसो अजणागहत्थीणं । वागरण करण-भंगिय-कम्म पगडी पहाणाणं
॥३०॥
आर्यमं आर्य मंक्षु हैं, ऐसा निर्णय किया गया है. इससे विद्वानोंका ध्यान इस और जाना आवश्यक है कि आज भले ही कुछ ग्रंथोंको हम केवल श्वेताम्बरोंके ही माने और कुछको केवल दिगम्बरोके किन्तु वस्तुतः एक काल ऐसा था जब शास्त्रकार और शास्त्रका ऐसा साम्प्रदायिक विभाजन नहीं हुआ था.
आर्य के विषय में एक खास बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि उनके कुछ विशेष मन्तव्यों के विषय में जयधवलाकारका कहना है कि ये परम्पराके अनुकूल नहीं (षट्खंडागम भा० ३ भूमिका पृष्ठ १५ ).
(१८) आचार्य शिवशर्म ( वीर नि० ८२५ से पूर्व ) - जैन धर्मकी अनेक विशेषताओंमें एक विशेषता है उसके कर्मसिद्धान्त की. जिस प्रकार षट्खण्डागम और कसायपाहुड विशेषतः कर्मसिद्धान्तके ही निरूपक हैं उसी प्रकार शिवशर्मकी कम्मपयडी और शतक कर्मसिद्धान्तके ही निरूपक प्राचीन ग्रंथ हैं. इनका समय भाष्य - चूर्णिकाल के पहले का अवश्य है.
-
(१९, २०) स्कन्दिलाचार्य व नागार्जुनाचार्य (वीर नि० ८२७ से ८४०). - ये स्थविर क्रमशः माथुरी या स्कान्दिली और वालभी या नागार्जुनी वाचनाके प्रवर्तक थे. दोनों ही समकालीन स्थविर आचार्य थे. इनके युगमें भयंकर दुर्भिक्ष उपस्थित होने के कारण जैन श्रमणोको इधर-उधर विप्रकीर्ण छोटे-छोटे समूहों में रहना पड़ा. श्रुतधर स्थविरों की विप्रकृष्टता एवं भिक्षाकी दुर्लभताके कारण जैनश्रमणों का अध्ययन - स्वाध्यायादि भी कम हो गया. अनेक श्रुतधर स्थविरोंका इस दुर्भिक्षमें देहावसान हो जानेके कारण जैन आगमोंका बहुत अंश नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-भिन्न एवं अस्त-व्यस्त हो गया. दुर्भिक्षके अन्तमें ये दोनों स्थविर, जो कि मुख्य रूपसे श्रुतधर थे, बच रहे थे किन्तु एक-दूसरे बहुत दूर थे. आर्य स्कन्दिल मथुराके आस-पास थे और आर्य नागार्जुन सौराष्ट्रमें. दुर्भिक्षके अन्तमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org