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________________ જ્ઞાનભંડારી પર એક દૃષ્ટિપાત 'सुरात्पुरतः कोरकपत्राण्यादाय चेतसो भक्त्या । लिखिता प्रतिः प्रशस्ता प्रयत्नतः कनकसोमेन ॥ " 66 इसका सारांश यह है कि सूरत शहर से कोरे कागज़ ला करके हार्दिक भक्ति से कनकसोम नामक मुनिने प्रयत्नपूर्वक यह प्रति लिखी है । Jain Education International ताड़पत्र में मोटी-पतली, कोमल-रूक्ष, लम्बी- छोटो, चौड़ी-सँकरी आदि अनेक प्रकारकी जातें थीं। इसी प्रकार कागज़ोंमें भी मोटी पतली, सफेद - साँवलापन ली हुई, कोमल रूक्ष, चिकनी-सादी आदि अनेक जातें थीं। इनमें से शास्त्रलेखनके लिये, जहाँ तक हो सकता था वहाँ तक, अच्छे से अच्छे ताड़पत्र और कागज़की पसंदगी की जाती थी। कागज़की अनेक जातों में से कुछ ऐसे भी कागज़ आते थे जो आजकल के कार्डके जैसे मोटे होनेके साथ ही साथ मजबूत भी होते थे । कुछ ऐसे भी कागज़ थे जो आजके पतले बटर पेपर की अपेक्षा भी कहीं अधिक महीन होते थे । इन महीन कागज़ोंकी एक यह विशेषता थी कि उस पर लिखा हुआ दूसरी ओर फैलता नहीं था । ऊपर जिसका उल्लेख किया गया है वैसे बारीक और मोटे कागज़ोंके ऊपर लिखी हुई ढेकी ढेर पुस्तकें इस समय भी हमारे ज्ञानभाण्डारोंमें विद्यमान है । इसके अतिरिक्त, हमारे इन ज्ञानभाण्डाका यदि पृथक्करण किया जाय तो प्राचीन समयमें हमारे देशमें बननेवाले कागज़ोंकी विविध जातें हमारे देखने में आएँगी | ऊपर कही हुई कागज़ की जातो में से कुछ ऐसी भी जातें हैं जो चार सौ, पाँच सौ वर्ष बीतने पर भी धुंधली नहीं पड़ी हैं। यदि इन ग्रन्थों को हम देखें तो हमें ऐसा ही मालूम होगा कि मानो ये नई पोथियाँ हैं । --- [e स्याही - ताड़पत्र और कागज़के ऊपर लिखनेकी स्याहियाँ भी ख़ास विशेषप्रकारको बनती थीं । यद्यपि आजकल भी ताड़पत्र पर लिखनेकी स्याहीकी बनावटके तरीकोंके विविध उल्लेख मिलते हैं, फिर भी उसका सच्चा तरीका, पन्द्रहवीं शतीके उत्तरार्द्ध में लेखनके वाहनके रूपमें कागज़की ओर लोगों का ध्यान सविशेष आकर्षित होने पर, बहुत जल्दी विस्मृत हो गया। इस बातका अनुमान हम पन्द्रहवीं शतीके उत्तरार्द्धमें लिखी गई अनेक ताड़पत्रीय पोथियोंके उखड़े हुए अक्षरोंको देखकर कर सकते हैं । पन्द्रहवीं शतीके पूर्वार्द्धमें लिखी हुई ताड़पत्रकी पोथियोंकी स्याहीकी चमक और उसी शती के उत्तरार्द्धमें लिखी हुई ताड़पत्र की पोथियोंकी स्याहीकी चमकमें हम जमीन-आसमानका फ़र्क देख सकते हैं। अलबत्ता, पन्द्रहवीं शतीके अन्तमें धरणा शाह आदिने लिखवाई हुई ताड़पत्रीय ग्रन्थोंकी स्याही कुछ ठीक है, फिर भी उसी शतीके पूर्वार्द्धमें लिखी गई पोथियोंकी स्याही के साथ उसकी तुलना नहीं की जा सकती। कागज़के ऊपर लिखनेकी स्याहीका ख़ास प्रकार आज भी जैसेका तैसा सुरक्षित रहा है अर्थात् यह स्याही चिरकाल तक टिकी रहती है और ग्रन्थको नहीं बिगाड़ती । रंग जिस तरह ग्रन्थोंके लेखन आदिके लिये काली, लाल, सुनहरी, रूपहरो आदि २ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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