________________
[४०
આ. વિ.નંદનસૂરિ સ્મારગ્રંથ थे। जैसे ही संघ के यात्री भाई उपाश्रय पहुंचे, आपश्री एकदम बैठे हो गये। साथ के मुनिराजों ने आपश्री को लेट जाने को कहा, पर वे बोले, “ये सब भाई इतनी दूर से आये है उज्ज्वल भावना के साथ, और मैं लेटा रहु?' उन्हों ने सब से बातचीत की और तुरंत समीप ही उपस्थित मुनि श्री सूर्योदयविजयजी महाराज (अब आचार्य) को मंगल प्रवचन करने को कहा । आप प्रवचनकाल तक बैठे ही रहे। जयपुर की धार्मिक, सामाजिक स्थिति के बारे में भी आपने जानकारी प्राप्त की। उन के स्वर्गवास का समाचार जान कर यात्री संघ के भाईयों को जयपुर मे' बहुत दुःख हुआ; कारण, वे उन की मृदुता और सौम्यता से अत्यधिक प्रभावित हुआ थे।
पालीताणा की प्रतिष्ठा उनके हाथों नहीं हो सकी, और मार्ग में ही उन की आत्मा नश्वर शरीर को छोड कर चली गई । उन का नाम नन्दन था, वे वास्तव में जैन शासन के नन्दन ही थे। १५ वर्ष की आयु में वि. स. १९६९ में खेडा में आचार्य विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के श्रीचरणो में वे समर्पित हो गये थे; और तब से ही वे गरोत्तमभाई के स्थान पर नन्दनविजय कहलाये थे।
१४ वर्ष के दीक्षा-पयार्य के बाद ही जैनपुरी अहमदाबाद मे गुरुदेव ने, अपने ज्ञानचक्षु से उनकी योग्यता परख कर, उन्हे' आचार्य पद से विभूषित किया था। महावीर के शासन में यह सर्वोच्च सम्मान हैं, जो उन्होंने केवल २८ वर्ष की उम्र मे' प्राप्त किया था। अब वे सिद्धान्तमार्तड, कविरत्न, न्यायवाचस्पति, शास्त्रविशारद जैनाचार्य विजयनन्दनसूरीश्वरजी बन चूके थे।
अपने गुरु भगवत की तरह ये भी अनेक जिनमदिरों एवं तीर्थों के प्रेरणास्रोत रहे । महुआ में अपने गुरुदेव के जन्म एवं स्वर्ग स्थल पर चार मजिला भव्य शिखर युक्त देरासर आपश्री की ही भक्ति का प्रतीक है ।
शत्रुजय महातीर्थ के निकट कदम्बगिरितीर्थ की प्रतिष्ठा का सारा भार आप के गुरुदेव ने आप पर ही डाला था; और जिस शालिनता से वह कार्य सम्पन्न हुआ था, उस से आप की कीर्ति सारे देश में फैल गई थी।
सम्बत १९९० मे अहमदाबाद मे आयोजित साधु-सम्मेलन में, ३४ दिवस की लम्बी विचारणा के बाद, ११ प्रमुख विषयों पर पट्टक तैयार करने का दायित्व जिन चार सन्तों पर डाला गया था उनमे आपश्री प्रमुख थे। आपके साथ अन्य तीन सन्त
-श्री पं० रामविजयजी म०, श्री पुण्यविजयजी म. एवं श्री चंद्रसागरजी म. थे। सं. १९९२ में दो तिथि के समाधान हेतु जो वार्ता आचार्य विजयनेमिसूरीश्वरजी व आचार्य विजयलब्धिसूरीश्वरजी में हुई थी उसका सारा संचालन भी आपश्री के हाथ था ।
अपने गुरुदेव के अन्तिम वक्त तक वे उनके साथ रहे । आचार्य भगवंत का उन पर अपार स्नेह था; अन्तिम वक्त में भी उनके ये शब्द थे : " नन्दन! तुं मारी पासे बेस, मने गोठतु नथी"।
Jain Education International
For Private & Personal. Use Only
www.jainelibrary.org