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________________ [33४] આ. વિનંદનસૂરિ સ્મારગ્રંથ पू. गुरुभगवंत को वे सदा अपने पास ही समझते-मानो कि प्रत्येक कार्य गुरुनिश्रा में व गुरुदृष्टिभे हो रहा हो । आचार्य श्री ने अपने जीवन में अपने नाम से ज्ञानभण्डार अथवा अपना कोई स्थान कभी खडा नहीं किया । आचार्यश्री ने न कोई अपना पक्ष खडा किया, न कोई अपना केन्द्र खडा किया। उन की नजरों मे जिन-शासन का प्रत्येक स्थान अपना निजी स्थान था । वर्तमान कालमे', गुरु से सामान्य विचारभेद या कहासुनी हो जाय तो झटपट अपना निजी अड्डा खडा करने पर जल्दी उतारु हो जानेवाले ठेकेदारों के सामने आचार्यश्री का जीवन एक अनुपम आदर्श है। शिल्प और मुहूर्तों के लिए सभी समझदार जैनी आचार्यश्री के निर्णय या मार्गदर्शन को जैन शासन की सुप्रिम कोर्ट का निर्णय या मार्गदर्शन कहते थे व मानते थेज्योतिष व शिल्पशास्त्र के आचार्य श्री इतने प्रतिष्ठित विद्वश्रेष्ठ, अनुभवज्ञानी व मर्मज्ञ थे । ऐसी ही स्थिति थी आगमिक ज्ञान के बारे मे । वतमान शासनपति भगवान् श्री महावीर देव का २५०० वा निर्वाणे त्सव राष्ट्रिय स्तर पर मनाना, पालिताना सिद्धक्षेत्र की वर्तमान ऐतिहासिक प्रतिष्ठा का निर्णय व पथदर्शन, वि. स. २०१४ के मुनिसम्मेल्लन के अवसर पर लिए गये निर्णय इत्यादि प्रसंग जब जब शासन के सामने आये तब आचार्यश्री ने स्पष्ट निर्णय दिये। वस्तुस्थिति के सही हार्द को समझकर स्पष्ट निर्णय लेना व उस पर से कभी न हटना, आचार्यश्री के जीवन का मुद्रालेख था । इतने मूर्धन्य महापुरुष होने पर भी गुरुभक्ति का गुण आचार्य श्री में ठंस टंस कर भरा हुआ था । इस काल के महान् ज्योतिर्धर, 'नेमियुग' के जनक, शासनसम्राट् पू. आचार्य भगवंतश्री की सेवा किस एकाग्रता से जाचार्य श्री करते थे वह असंख्य महानुभावों की देखी हुई बात है। आचार्य श्री का जीवनमत्र था, प्रथम गुरुभक्ति व उस में से बचे उस समय अध्ययन। इस गुण के कारण गुरुकृपा का अपूर्व वरदान आचार्य श्री को मिला था। आचार्यश्री की योग्यता के कारण केवल १६ वर्ष की वय में दीक्षा पाकर २७-२८ वर्ष की उम्र में तो पू. शासनसम्राट्श्री ने इन्हे' आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया था। इसी सुयोग्य प्रशासन व स'गठनशक्ति के कारण शासन-सम्राटूश्री ने अपने समुदाय की जिम्मेदारी आचार्य श्री के कौंधों पर डाली थी, जिसे आचार्य श्री ने जीवन की आखिरी सांस तक बखूबी निभायी थी, और शासनसम्राटश्री की संघकल्याणकारी प्रणालिका को रोशन किया था । आचार्य श्री के स्वर्गवास से एक ऐसी सर्वग्राही रिक्तता जैन शासनमे पैदा हुई है, कि जिसकी पूर्ति कब होगी यह केवलज्ञानी भगवान ही जाने । आज तो आचार्यश्री की अनुपस्थिति के कारण जैन शासन के समाधानोंका केन्द्र रिक्त हुआ है, वह दूसरे सर्वमान्य महापुरुष की प्रतीक्षामे है। . कोटी कोटी वन्दन हो इन समर्थ युगपुरुष, वर्तमान शासन के सेनापति पू. आचार्य देवेशको । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012053
Book TitleVijaynandansuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatilal D Desai
PublisherVisha Nima Jain Sangh Godhra
Publication Year1977
Total Pages536
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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