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________________ પ્રશસ્તિ : લેખે તથા કાવ્ય [333] आचार्यश्री जितने कोमल थे उतने ही कर्तव्यपथमे कठोर थे। आचार्यश्री का व्यक्तित्व जहां हिमालय के शिखर से कई गुना उचा था, वहां छोटे-से-छोटे व्यक्तिसे भी आत्मीय वृत्ति से होती मधुर बाते' उन की निरभिमानी सरल वृत्ति व नम्रता को बताती थी! तीर्थरक्षा हेतु किसी भी चीज का त्याग करना या कष्ट सहेना उन के लिए आसान बात थी! आचार्यश्री अत्यत कुशल प्रशासक व संगठक थे । साधु-साध्वीओं का प्रशासन एक अत्यंत कठिन कार्य है। आचार्यश्री की पद्धति इतनी सुदर व वात्सल्यभरी थी कि, साधु-साध्वी स्वयं आचार्य श्री की आज्ञा के पालन में अपने जीवन की सुरक्षा मानते थे । साधु-साध्वीओं के संयम-जीवन के रक्षण की ओर आचार्यश्री का हमेशा ध्यान रहता। प्रत्येक साधु-साध्वी के साथ उन का व्यवहार इतना मधुर रहता कि, अपने गच्छसमुदाय का तो क्या, पर किसी भी समुदाय या गच्छ के साधु-साध्वी बेझिझक आचार्यश्री के पास आकर अपनी बात प्रस्तुत करते, आचार्यश्री धीरज व शांति से उन्हें सुनते, प्रेम, वात्सल्य व शांति से उन्हे मार्गदर्शन देते' व उनके मददगार बनते । प्रत्येक संयमी के लिए आचार्यश्री की उदारता बेजोड थी। बाल साधु को देखकर आचार्यश्री प्रसन्नता से झुम उठते । उसे पढाने के लिए स्वयं वाचना देने को भी सदा तत्पर रहते। आचार्यश्री की वाचना भी स्व-पर शास्त्रज्ञान, अनुभवज्ञान व व्यवहारज्ञान के अपूर्व संगम जैसी रहती थी। किसी भी प्रश्न को समज्ञाने की उन की शैली ऐसी सुदर थी कि बालक भी सरलता व सहजता से तत्काल पदार्थ को ग्रहण कर ले। उन के प्रतिपादन में क्लिष्टता न होकर सरलता रहती थी। कठिन से कठिन पदार्थों को सरलता के साथ समझाना आचार्यश्री का नैसर्गिक गुण था । आचार्य श्री प्रत्येक साध-साध्वी के साथ ऐसे तादात्भ्य से बात करते व उनकी बात सुनते कि, प्रत्येक यह ही समझता कि आचार्यश्री बस मुझे ही चाहते हैं, मेरे उपर ही पूज्यश्री की कृपा है । __ आचार्यश्री को पूछे गये प्रश्नों का प्रत्युत्तर इतना स्पष्ट रहता कि, जिसमे शका की कोई गुजायश नहीं रहती थी। मसले के जवाब के साथ उन पहलुओंको भी वे स्पष्ट कर देते जो आपने पूछे न हो, पर मसले के साथ संबंधित हो । ___ आचार्यश्री की निरभिमानवृत्ति भी आदर्श थी। जब कोई भी महानुभाव उन के सामने उन की प्रशंसा या अनुमोदना करता, तो आचार्यश्री तत्काल कह देते, "भाई ! यह ते। गुरुमहाराज की कृपा है, इसमे अपना कुछ नहीं।” बस तत्काल बोज से हलके हो जाते । साक्षात् गुरुकृपा का दण्ड लेकर ही उस के सहारे सर्वतोभावेन समर्पित होकर चलना आचार्यश्री की सहज प्रवृत्ति बनी थी। इस प्रवृत्ति के कारण अपने भवोदधितारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012053
Book TitleVijaynandansuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatilal D Desai
PublisherVisha Nima Jain Sangh Godhra
Publication Year1977
Total Pages536
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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