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________________ [33२] मा. वि.नइनसूरि-स्मा२ अथ वर्तमान जिनशासन के कर्णधार लेखक-श्री नेमि-लावण्यचरणोपासक प. पू. मु. श्री मनोहरविजयजी गणि निष्कारण जगबन्धु समस्त जीवों के परमोपकारी करुणानिधान परमतारक भगवान श्री जिनेश्वर देव संसार के दुःखविदग्ध समस्त जीवों के उद्धार व कल्याण हेतु शासन की स्थापना करते है । इस प्रभुशासन की धुरा को समय के सुज्ञाता, प्रभावक, धर्म प्रचारक संयमनिष्ठ आचार्य भगवन वहन करते हैं। शासन के सामने आनेवाले आन्तर-बाह्य तूफानों का सामना आचार्य करते है। और उन सभी को शांत कर के शासन की नैय्या के खेवैय्या बन कर शासन के ध्वज को सदैव ऊंचा ऊचा लहराते रहते है; शासन को गति-प्रगतिशील रखते है एव' थामी हुई शासन की बागडोर को सफलतापूर्वक सम्हालते है। वर्तमान काल के सभी आचार्यों में अपनी प्रचण्ड बुद्धिप्रतिभा, दीर्घ दृष्टि, सच्ची सुज्ञबुझ, बहुश्रुतता, स्वपरशास्त्रपारगामित्व, समय के प्रत्येक प्रसंग के ध्येय व लाभालाभ को तत्काल परखनेवाले, यथासमय निडरतापूर्वक शासन को सही मार्गदर्शन देनेवाले, शासन के हित हेतु किसी की भी परवा न करके स्पष्ट निर्णय लेकर उस अनुसार सफल कदम उठाकर इच्छित परिणाम लानेवाले, शासन की रक्षा हेतु सदैव सजग रहनेवाले, शासन हेतु अपने शरीर की कतई परवा न करनेवाले, सदा अप्रमत्त कार्यरत रहनेवाले और पैनी बुद्धि के धनी प. पू. आचार्य भगवन् श्रीमद् विजयनन्दनसूरीश्वरजी म. सा. अक मात्र बेजोड सर्वप्रिय आचार्य श्रेष्ठ थे जिनका मार्गदर्शन प्रायः सभी सानद स्वीकार करते थे। इस महामना महापुरुष के मन में सभी के प्रति सदैव सदभाव ही रहता था; किसी के प्रति अभाव का नाम भी उन्हों में नहीं था। प्रायः प्रत्येक गच्छवाले-स्थानकवासी, तेरापंथी या दिगबर-इस उदारचेता देव से अपनी समस्या का हल पाने को सरिदेव के पास आते, आचार्य श्री उन्हें बिना किसी भेदभाव अपना ही समझकर सही मार्गदर्शन देते । वे समस्या लेकर आते व उसका हल पाकर जाते । और वह हल भी शास्त्रनिर्दिष्ट ही रहता । शास्त्र से परे जानेका विचार भी आचार्य श्री को कभी नहीं आता । दूसरों को प्रसन्न रखने हेतु या अपना बनाने हेतु शास्त्र व परपरा से परे जाना आचार्य श्री के स्वभाव में ही न था। आचार्यश्री व्यवहारविज्ञ होने पर भी शास्त्रीय मार्ग के ही सदैव प्रस्तोता रहे । आचार्य श्री कभी भी कुमताग्रही नहीं रहे। सत्य का पक्ष सदा लेने पर भी यदि दूसरा न माने तो वाद-विवाद का झमेला खडा करके पक्षवाद को प्रबल करना व शासनसघ में अशान्ति की होली जलाये रखना आचार्य श्री के स्वभाव से विरुद्ध था । उन के निर्णय पर कभी कभी अपना अलग अड्डा चलानेवाले कूदते थे, खिजते थे; फिर भी शासनसंघ को आचार्यश्री का निर्णय ही सदा मान्य रहता था! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012053
Book TitleVijaynandansuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatilal D Desai
PublisherVisha Nima Jain Sangh Godhra
Publication Year1977
Total Pages536
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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