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આ. વિનદનસૂરિ-સ્મારકમથ
सपूर्ण देश में' से जैन सौंधो के प्रतिनिधि-आगेवान व्यक्ति जिनम ंदिर आदि के निर्माण, प्रतिष्ठादि मुहूर्त के लिये आते-जाते रहेते थे । अत्यधिक मानसिक व शारीरिक श्रम उन्हें पडता था, मैंने जब एक बार उन्हें कहा कि आपकी अवस्था और श्रम देखते हुए थोडे बहुत विश्राम की मैं आपसे अपेक्षा रखता हू । उन्होंने हस कर कहा कि, " यह शरीर तो श्रम का चोर बना हुआ हैं, मुझे उसे चोरी नहीं करने देना है । मन मेरे अनुकूल है. शरीर में श्रम तुम्हे दिखेगा, किंतु मेरे मन में विश्राम छिपा हुआ है । "
एक बार जैन साहित्य मंदिर, पालीताणा में उनके पास में बैठा था, एक व्यक्ति आया, बैठा उनके पास, फिर अलग-अलग समुदाय के पू. आचार्यों-साधुजनों के विषय मे' इधर-उधर की बातें करने लगा । पूज्य आचार्यश्रीने उसे रोकते हुए कहा कि " तुम्हारे जैसा एक आदमी जो बैठा हुआ अपने दरवाजे पर दूसरे लोगों की जाती आती गायभैसों को गिनता रहता था कि, गांव में कितनी गाए, कितनी भैंस है । सुबह गाए' जाती जगल की तरफ, सांझ को लौटती, वह सदा हिसाब रखता था; लेकिन एक रत्ती भी दूध हाथ नहीं आता था। तुम भी उस आदमी जैसी बात कर रहे हो । दूसरों की गाय भैसे गिनते-गिनते जीवन बीत जाये तो भी एक बूंद दूध की हाथ नहीं आयेगी ।" वह चूपचाप चलता बना ।
वे हमेशा परचर्चा से विकथा आदि से दूर रहा करते थे । लोग उनके पास समस्या लेकर जाते और समाधान पाकर के लौटते; सघर्ष लेकर जाते और वहां से समन्वय शांति प्राप्त करके आते। एक तरह से उनका जीवन ही विश्वविद्यालय बना हुआ था । जो भी आता कुछ न कुछ जानकर, प्राप्त कर के जाता, प्रेरणा लेकर लौटता । वे एक कुशल व्यवस्थापक - अनुशासक भी रहे, जब जब आवश्यकता उपस्थित हुई, संघ को व्यवस्था दी, दीर्घ दृष्टीपूर्ण मार्गदर्शन दिया । वे अपने निर्णय में निष्पक्ष और निडर थे ।
व्यवस्था और अनुशासन की दृष्टी से वे कठोर थे, परंतु उससे भी अधिक वे दिल से कोमल थे | स्वभाव से वे खूब उदारवादी थे, हर-एक के लिये उनके हृदय में स्थान रहता था । हर-एकके कार्य में वे सहायक बनते थे । वे सब के थे, उनके पास जो भी कुछ था वह सब के लिये था, सब का था, सब को दिया भी, उसमें उनका अपना कुछ नहीं था ।
उनका जीवन-व्यक्तित्त्व प्रतिभा से परिपूर्ण था । वे मुझे परोपकारी प्याऊ (परब) जेसे लगे, जो भी ज्ञान जिज्ञासा की तृषा-प्यास लेकर आया वह तृप्त होकर ही गया । सयम-साधना में भी वे पूर्ण अप्रमत्त-जागृत रहैं, ज्ञान व क्रिया की उनकी साधना उज्ज्वल रही है, आचार-शुद्धि के वे आग्रही थे। उनका सयम उनके चहेरे से ही प्रतीत हो जाता था । उनके हृदय की भाषा को उनके चहरे में पढा जा सकता था । उनके अदर विचारों की भीड नहीं थी, जीवन जंगल जैसा नहीं, किंतु न'दनवन जैसा आकर्षक था। ब्रह्मचर्य के ओज से प्रज्ज्वलित उनका ज्ञान दीप किसी से छिपा हुआ नहीं था ।
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