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________________ પ્રશસ્તિ : લેખા તથા કાવ્યો [ २८७] वे गये, किंतु उनकी पुण्य स्मृति सदा के लिये भारतभरके जिनम दिरों के साथ जुडी हुई रहेगी । प्रायः हर एक जिनमंदिर के निर्माण से प्रतिष्ठा तक में उनका कुछ न कुछ मार्गदर्शन तो रहा है । वे एक सर्वमान्य विद्वान, ज्योतिष विषय के पूर्ण जानकार व शिल्पशास्त्र के अजोड अद्वितीय ज्ञाता थे। जैन नयवाद तर्क के अपूर्व विद्वान् थे । जीवन के अस्त तक उनके ज्ञान की उपस्थिति कायम रही । श्री विजयदेवसूर तपागच्छीय अविच्छिन्न परपरा के वे अग्रणी आचार्य और प्रवक्ता रहे । हमारी सर्वमान्य पर परागत प्रणाली पर जैन शासन पर आनेवाले वैचारिक आक्रमणों, सैद्धांतिक संघर्षों के समय उन्होंने कुशलतापूर्वक उसका रक्षण किया, सत्य का प्रतिपादन किया । वे इस सौंसार से गये जरूर, क्यों कि यह एक निश्चित सत्य है, प्रकृति का स्वीकार करना ही पडता है, किंतु लोगों के हृदय से नहीं जा सकेंगे। हजारों-लाखों के हृदय मनमदिर में वे सदा के लिये प्रतिष्ठित हो गये । मेरे उपर उनकी खूब कृपा रही, पूर्ण वात्सल्य रहा और मेरे लिये वे प्रेरक भी रहे। आज उनकी पुण्य स्मृति को स्मरण में लाकर मैं स्वयं को धन्य अनुभव करता हूँ' । ऐसे एक महामानव के प्रति, एक महान धर्माचार्य के प्रति, एक महान् साधक आत्मा के प्रति मैं अपनी भावपूर्ण हार्दिक कोटी-कोटी वदनपूर्वक स्मरणाञ्जलि अर्पण करता हू । ॐ शांतिः । श्रद्धा-सुमन लेखिका - प. पू. प्रवर्तिनी साध्वीजी श्री विचक्षणश्रीजी महाराज भगवान महावीर की श्रमण परम्परा के महान श्रमण ज्योतिषाचार्य, शासनप्रभावक, ज्ञानवारिधि, आचार्य श्री विजयनन्दनसूरिजी महाराज का जो अभिनन्दनग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है इससे हार्दिक प्रसन्नता हुई । आचार्य श्री श्रमण परम्परा के अनमोल मोती थे। उनके जीवनमें सत्यम-साधना, आत्म-आराधना एवं शासनप्रभावना रूप त्रिवेणीस गम था। जिनशासन के प्रांगण में ऐसे महान शक्तिस पन्न आचार्य समय समय पर होते रहे हैं, जिनकी शासनप्रभावना की सौरभ युगयुगान्त तक व्याप्त रहती है। आचार्यश्री की जीवनगत विशेषताओं का उल्लेख इस ग्रन्थ के माध्यम से व्यापक स्तर पर होगा ही । मेरा भी आचार्य श्री से परिचय लम्बे काल से था । ज्योतिष का उनका विषय ही ऐसा था कि जब कभी कोई भी शुभ कार्य संपन्न कराने की कल्पना आती, उसी समय ध्यान आचार्यश्री की ओर जाता । इतने बडे आचार्य होते हुए भी प्रत्येक प्रश्न " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012053
Book TitleVijaynandansuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatilal D Desai
PublisherVisha Nima Jain Sangh Godhra
Publication Year1977
Total Pages536
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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