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________________ हिन्दी (मरु-गुर्जर) जैन साहित्य का महत्त्व और मूल्य - डॉ. शितिकण्ठ मिश्र विषय प्रवेश मरु-गुर्जर जैन साहित्य अपभ्रंश और आधुनिक हिन्दी, राजस्थानी तथा गुजराती साहित्य की मध्यवर्ती कड़ी है। इन भाषाओं के साहित्य को भाषा, शैली, भाव, रस, छन्द, काव्य-रूप आदि की दृष्टि से मरु-गुर्जर जैन साहित्य से एक समृद्ध और सम्पन्न परम्परा विरासत में मिली है। अतः इन भाषाओं में लिखित साहित्य का प्रामाणिक अध्ययन करने के लिए मरु-गुर्जर जैन साहित्य का मनन करना अपरिहार्य है। ऐसा न करने पर विकास की बहुत सी कड़ियों का क्रम भंग हो जाता है और उनकी संगति बैठाने के लिए विद्वानों को बड़ा द्राविड़-प्राणायाम करना पड़ता है। दुःख के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि इसके अध्ययन की तरफ जितना ध्यान अपेक्षित था, विद्वानों ने अब तक नहीं दिया है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, हिन्दी में मरु-गुर्जर जैन साहित्य का सर्वांगीण एवं प्रामाणिक इतिहास सुलभ नहीं है। इसके अलग-अलग अंगों पर अनेक विद्वानों ने आलोचना, शोध और इतिहास ग्रन्थ लिखे हैं। मरु और गुर्जर के पंडितों ने अपनी-अपनी भाषा के साहित्य का अलग-अलग अध्ययन भी किया है, जिनमें श्री चन्द्रधरशर्मा "गुलेरी" कृत पुरानी हिन्दी, श्री कामताप्रसाद जैन कृत हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, श्री नाथूराम "प्रेमी" कृत हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, श्री मोतीलाल मेनारिया कृत राजस्थानी साहित्य की रूप-रेखा, श्री नरोत्तमस्वामी कृत राजस्थानी भाषा और साहित्य, श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई कृत जैनगुर्जर कवियों और गुर्जर साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, श्री अगरचन्दनाहटा कृत राजस्थानी जैन साहित्य आदि उल्लेखनीय हैं। पिछले दशक में प्राकृत भारती, जयपुर से राजस्थान का जैन साहित्य नामक एक और उत्तम पुस्तक प्रकाशित हुई है, किन्तु इन सबके बावजूद जैसा पहले निवेदन किया गया है, मरु-गुर्जर के विविधतामय विपुल साहित्य का समवेत, सर्वांगीण और वैज्ञानिक बृहत् इतिहास हिन्दी में लिखा जाना अभी शेष है। इस उदासीनता के कारणों पर विचार करने से पूर्व "मरु-गुर्जर" पद पर यहीं थोड़ा विचार कर लेना समीचीन होगा। मरु-गुर्जर का अभिप्राय मरु-गुर्जर एक सामासिक पद है जिसमें मरु और गर्जर दो शब्द सम्मिलित हैं। इस पद के तीन आयाम हैं। यह शब्द मरु और गुर्जर नामक प्रदेश, उन प्रदेशों की भाषा और उस भाषा में लिखे गये जैन साहित्य का वाचक है। अतः इसका सही अभिप्राय समझने के लिए इन तीनों आयामों को ध्यान में रखना अपेक्षित है। सर्वप्रथम इसके भाषा सम्बन्धी पक्ष पर दृष्टिपात करना उचित है। अपभ्रंश के पश्चात् (वि.सं. 12वीं शताब्दी) और हिन्दी, राजस्थानी तथा गुजराती भाषाओं के विकास से पूर्व (वि.सं. 15वीं शताब्दी) की संक्रमणकाली संयुक्त काव्य-भाषा का नाम मरु-गुर्जर है, इसमें लिखा गया जैन साहित्य ही मरु-गुर्जर जैन साहित्य है। श्रीचन्द्रधरशर्मा "गुलेरी", महापंडित राहुल-सांस्कृत्यायन प्रभृति विद्वान् इस शब्द के स्थान पर पुरानी हिन्दी शब्द का प्रयोग करते थे। विद्वानों ने मरु-गुर्जर भाषा का विकास शौरसेनी अपभ्रंश की पश्चिमी शाखा - नागर अपभ्रंश से होना प्रामाणित किया है। यह भाषा 12वीं शताब्दी से प्रायः 16वीं शताब्दी तक मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मालवा आदि की काव्य-भाषा के रूप में व्यवहृत होती रही। राजपूतों का उत्थान और उनके राज-दरबारों में इसके कवियों का सम्मान राजस्थान, गुजरात, मालवा आदि प्रदेशों में जैनधर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार और इस धर्म के साधुओं, श्रावकों, कवियों और आचार्यों द्वारा इसे काव्य का माध्यम स्वीकार करना, इसके व्यापक प्रचार एवं प्रतिष्ठा के कुछ प्रमुख कारण हैं। 70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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