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________________ डॉ. अरुणप्रताप सिंह उपर्युक्त श्वेताम्बर ग्रन्थों का मूलाचार में उल्लिखित होना कुछ आश्चर्यजनक नहीं। श्वेताम्बर आगम चूंकि यापनीय परम्परा को मान्य थे अतः उन्होंने उसका भरपूर उपयोग अपने ग्रन्थ के लिए किया। कालान्तर में टीकाकार वसनन्दि ने इन सन्दर्भो की जो दिगम्बर परम्परा मान्य टीका करने का प्रयास किया, वह हास्यास्पद सी हो गई है। 5. मूलाचार की स्त्री-मुक्ति की अवधारणा उसे यापनीय परम्परा के होने का अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करती है। सद्यः प्रकाशित शाकटायन व्याकरण (जो यापनीय परम्परा का एक प्रमुख ग्रन्थ है) नामक ग्रन्थ में भी स्त्री-मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार किया गया है। मूलाचार के अनुसार भी स्त्री-मोक्ष को प्राप्त कर सकती है, परन्तु मूलाचार की इस अवधारणा के विपरीत दिगम्बर परम्परा यह मानती थी कि स्त्री-मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकती। उसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए पुनः पुरुष के स्प में जन्म लेना अनिवार्य है। इसी आधार पर वह 19वें तीर्थकर मल्लीनाथ को (जो श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार स्त्री है) पुरुष के रूप में स्वीकार करती है। ही कारण है कि प्रसिद्ध दिगम्बर ग्रन्थ सत्तपाइड में स्त्री की प्रवज्या का ही निषेध किया गया है-- "इत्थीसु णा पावया भणिया" । मूलाचार इसके विपरीत, न केवल स्त्री की प्रवज्या का ही विधान करता है, उसके लिए नियम बनाता है, बल्कि उसको मुक्ति प्राप्त करने के योग्य भी मानता है। उपर्युक्त सन्दर्मों से यह स्पष्ट होता है कि मुलाचार उस परम्परा का ग्रन्थ नहीं है, जिसमें स्त्री की प्रव्रज्या का ही निषेध किया गया हो। मूलाचार की अवधारणाएँ दिगम्बर परम्परा की स्वीकृत अवधारणों से काफी भिन्न और बेमेल दिखायी देती है। इसके अतिरिक्त, मूलाचार में श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों का अधिक मात्रा में उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि मूलाचार का कर्ता इन ग्रन्थों से भिज्ञ था और उन्हें स्वीकार करने में उसे संकोच नहीं था। हम निस्संकोच रूप से कह सकते हैं कि मूलाचार उस परम्परा का ग्रन्थ है, जिसमें मुनि की अचेलकता की प्रशंसा की गई है, साथ ही जिसे स्त्री-मुक्ति की अवधारणा और श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ भी मान्य हैं और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आलोक में हम जानते हैं कि वह परम्परा यापनीय परम्परा थी। प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास विभाग, श्री बजरंग महाविद्यालय, दादरआश्रम, सिकन्दरपुर, बलिया (उ.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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