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डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय
चन्द्रसूरिकृत प्रदेशव्याख्याटिप्पण, माणिक्यशेखरकृत आवश्यकनिर्युक्तिदीपिका, जिनदासगणि महत्तरकृतचूर्णि एवं विशेषावश्यक की जिनभद्र की स्वोपज्ञवृत्ति प्रमुख हैं।
उपोद्घात् आवश्यकनिर्युक्ति के प्रारम्भ में उपोद्घात है, इसे इस ग्रन्थ की भूमिका कहा जा सकता है। इसमें 880 गाथाएँ हैं। उपोद्घात में आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल इन पाँच प्रकार के ज्ञान, इनके अवान्तर भेद, प्रत्येक का काल-प्रमाण, आभिनिबोधिक ज्ञान की निमित्तभूत पाँच इन्द्रियाँ, आभिनिबोधिक ज्ञान के समानार्थक शब्द, अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, सादिक, सपर्यवसित, गमिक, अंगप्रविष्ट, अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंगबाह्य 10 इन चौदह प्रकार के निक्षेपों के आधार पर श्रुतज्ञान, उसके स्वरूप व भेद एवं अवधि तथा मन:पर्ययज्ञान के स्वरूप व प्रकृतियों की विशद विवेचना की गई है। इसे ज्ञानाधिकार भी कहते हैं। इसके बाद षडावश्यकों में से सामायिक को सम्पूर्णश्रुत के आदि में रखते हैं। इसका कारण यह है कि श्रमण के लिये सामायिक का अध्ययन सर्वप्रथम अनिवार्य है। सामायिक के अध्ययन के पश्चात् ही अन्य आगम साहित्य के पढ़ने का विधान है। 11 चारित्र का प्रारम्भ ही सामायिक से होता है, इसलिये चारित्र की पाँच भूमिकाओं में प्रथम भूमिका सामायिक चारित्र की है।
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अतः
ज्ञान और चारित्र के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते हुये, आचार्य ने यही सिद्ध किया है कि मुक्ति के लिये ज्ञान और चारित्र दोनों अनिवार्य है । चारित्रविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन चारित्र एक-दूसरे से दूर आग से घिरे हुए अन्धे और लंगड़े के समान हैं, जो एक-दूसरे के अभाव में अपने मन्तव्य पर नहीं पहुँच सकते। 12. ज्ञान व चारित्र के संतुलित समन्वय से ही मोक्ष प्राप्ति होती है। इसके बाद आचार्य सामायिक के अधिकारी की पात्रता, उसका क्रमशः विकासक्रम, कर्मों के क्षयोपशम एवं मोक्ष प्राप्ति कैसे होती है ? आदि प्रश्नों, एवं तज्जनित शंकाओं के समाधान के साथ उपशम एवं क्षपक श्रेणी का विस्तृत वर्णन किया है। इसके पश्चात् आचार्य शिष्य की योग्यता के मापदण्ड का व्याख्यान विधि से निरूपण करते हुए अपने मुख्य विषय सामायिक का व्याख्यान प्रारम्भ किया है, जिसे उन्होंने उद्देश्य, निर्देश, निर्गम क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय आदि छब्बीस निक्षेपों के आधार पर व्याख्यायित किया है। इस क्रम में निर्गम की चर्चा करते हुये भगवान महावीर के मिथ्यात्वादि से निर्गमन, उनके पूर्व भव, ऋषभदेव से पूर्व होने वाले कुलकर, ऋषभदेव के पूर्वभव, उनकी जीवनी एवं चारित्र का वर्णन करते हुये निर्युक्तिकार ने भगवान महावीर के जन्म एवं उनके जन्म से सम्बन्ध रखने वाली तेरह घटनाओं गर्भापहार, अभिग्रह, जन्म अभिषेक, वृद्धि, जातिस्मरणज्ञान, भयोत्पादन, अपत्य, दान, सम्बोध और महाभिनिष्क्रमण12 तथा उनके इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों 14 का भी उल्लेख किया है।
स्वप्न,
इसके पश्चात् आचार्य ने सामायिकसूत्र के प्रारम्भ में आने वाले नमस्कार मंत्र की उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम प्रयोजन और फल 15 इन ग्यारह द्वारों से व्याख्या की है। पंचनमस्कार के बाद सामायिक किस प्रकार करनी चाहिए 216 सामायिक का लाभ कैसे होता है 217 सामायिक का उद्देश्य क्या है ? 18 आदि प्रश्नों का विशद विवेचन आचार्य ने किया है।
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चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक सूत्र का दूसरा अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव है । चतुर्विंशति शब्द की नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छः निक्षेपों एवं स्तव शब्द की चार प्रकार के निक्षेपों से व्याख्या की गई है। चतुर्विंशतिस्तव के लिये आवश्यकसूत्र में "लोगस्सुज्जोयगरे" का पाठ है। इसकी नियुक्ति करते हुये आचार्य भद्रबाहु ने लोक शब्द की नाम, स्थापना, काल, भाव, द्रव्य, क्षेत्र, भव और पर्याय 19 इन आठ प्रकार के निक्षेपों से व्याख्या की है। इसके अतिरिक्त दो प्रकार के उद्योत 20, श्रमणधर्म, धर्म के भेद एवं अवान्तर भेद, तीर्थ, जिन, अरिहन्त आदि शब्दों की व्याख्या करते हुये, अन्त में नियुक्तिकार ने चौबीस तीर्थंकरों की निक्षेप पद्धति से व्याख्या कर उनके गुणों पर भी प्रकाश डाला है। 21
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