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जैनधर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का उद्भव एवं इतिहास
को पूरी तरह प्राप्त नहीं कर सकीं। वे यांत्रिक बन गई। अपनी सीमा में अधिकांशतः क्रिया (Doing ) बनकर रह गईं, "होना" (Becoming) रूप न ले सकीं। परिणामस्वरूप मूर्ति का स्थान इन सम्प्रदायों में भी चित्र, कलैण्डर, पैडल आदि लेते जा रहे हैं। दिखावा, आडम्बर और प्रदर्शन भी विभिन्न धार्मिक उत्सवों, तपस्या के जुलूसों आदि में देखा जा सकता है, गुणपूजा गौण होकर व्यक्ति पूजा प्रधान हो गई है। महावीर पीछे छूट गये हैं और अलग-अलग सम्प्रदायों के गुरु व आचार्य मुख्य बन गये हैं। साम्प्रदायिक कट्टरता और आम्नायभेद से अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय भी ग्रस्त हैं। ___मूर्तिपूजक मूर्ति के सामने याचना कर अपनी मनोकामना पूरी करना चाहते हैं तो लगता है, अमूर्तिपूजक भी अपनी धर्मकरणी का फल भौतिक समृद्धि की प्राप्ति मानने लगे हैं। धन और सम्पत्ति यहाँ भी धर्म-साधना के केन्द्र में घर करती जा रही है। परिग्रह और वैभव को पुण्य का फल माना जाने लगा है। वहाँ भगवान को भोग लगाया. जाता है तो यहाँ स्वयं भोग भोगने की लालसा है। सच्चा धर्म भोग से छूटने में है, त्याग में है, पर त्याग अन्तर से न होकर दिखावे के लिए, नाम के लिये होने लगा है। मूर्ति अपने आप में, जड़ है, तटस्थ है, राग-द्वेष से परे है, हम उसके साथ अपना सांसारिक सम्बन्ध जोड़कर उसे विकृत करते हैं। पर जहाँ मूर्ति नहीं है, व्यक्ति है, यदि उसकी भोगवृत्ति छूटी नहीं है, यशलिप्सा मिटी नहीं है तो वह अपने को भगवान बनाकर, भक्तों से पूजा-सत्कार करवा कर भ्रांति पैदा कर सकता है। वर्तमान में बनने वाली इस स्थिति से प्रत्येक आत्म-साधक को सावधान रहने की आवश्यकता है।
प्रो. नरेन्द्र भानावत, सी-235 ए, तिलक नगर, जयपुर-302004
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