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________________ प्रो. नरेन्द्र भानावत तारणस्वामी का जन्म पुहुपावती नगरी में विक्रम संवत् 1505 (ई.स. 1448) में हुआ। इनके पिता का नाम गढ़ासाब था। वे दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी के दरबार में किसी पद पर काम करते थे। बाद में वे दिल्ली छोड़कर पुहुपावती आ गये। तारणस्वामी बचपन से ही बड़े मेधावी और अध्ययनशील थे। इनकी शिक्षा श्री श्रुतसागर मुनि के पास हुई। ये आजन्म ब्रह्मचारी रहे और धर्म ग्रन्थों का गहन अध्ययन कर मूर्तिपूजा के नाम पर प्रचलित बाह्य आडम्बर का विरोध कर इन्होंने आत्मशुद्धि मूलक धर्म का स्वरूप प्रस्तुत किया। तारणस्वामी ने बराबर यह बात कही कि यदि हृदय पवित्र भावना से रिक्त है तो जड़ पूजा से क्या लाभ ? पूजा पद्धति में ऊँच-नीच के भेद-भाव का इन्होंने विरोध किया और कहा -- महावीर के शासन में मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक को समान अवसर और स्थान प्राप्त है। इन्होंने सभी जाति और वर्ण के लोगों को आत्मधर्म का उपदेश दिया और मूर्तिपूजा के स्थान पर ग्रन्थपूजा की प्रतिष्ठा की। इनके शिष्यों में प्रमुख थे -- चिदानन्द चौधरी, लक्ष्मण पाण्डेय, परमानन्द्र विलासी और लुकमान शाह, जो मुसलमान था। इनके प्रभाव से कई राजाओं ने भी इनके मत को स्वीकार किया। इनमें गुजरात के राजा शिवकुमार, शाहकुमार तथा रायसेनगढ़ के राजा मुख्य थे। लाखों की संख्या में इनके अनुयायी हुए। तारणपन्थ को मानने वालों में चरणागार, समैया, असेढी, अयोध्या, गोलापूरब आदि जाति के लोग मुख्य हैं। तारणस्वामी द्वारा रचित 14 ग्रन्थों का उल्लेख डॉ. तेजसिंह गौड़ ने किया है। उनके नाम है -- 1. श्रावकाचार 2. मालाजी, 3. पंडितपूजा, 4. कमल बत्तीसी, 5. न्यायसमुच्चसार, 6. उपदेशशुद्धसार, 7. त्रिभंगीसार, 8. चौबीस ढाला, 9. मम्मल पाहुड, 10. सुन्न स्वभाव, 11. सिद्ध स्वभाव, 12. खातका विशेष, 13. कदमस्थवाणी, 14.नाममाला। ये ग्रन्थ 15वीं शती में प्रचलित संस्कृत-हिन्दी मिश्रित भाषा के हैं। इसमें पूजा के नाम पर होने वाले बाह्य क्रिया-काण्ड का विरोध करते हुए आन्तरिक शुद्धता, बाह्य-अभ्यन्तर तपस्या आचरण की पवित्रता और चित्त वृत्ति की निर्मलता पर विशेष बल दिया गया है। शुद्ध आत्मस्वरूप के वर्णन में आपकी गहरी आध्यात्मिक अनुभूति और तत्वचिन्तना का पता चलता है। पारम्परिक धार्मिक भक्तों ने तारणस्वामी का जबरदस्त विरोध किया। कई प्रकार के दबाव डाले गये, प्रलोभन दिये गये। यहाँ तक कि जान से मारने के प्रयत्न किये गये पर ये इन सबसे अप्रभावित रहे। बेतवा नदी के घाट से पार उतरने के लिये नौका का उपयोग किया जाता था। इस कारण वहाँ नौकाएँ तथा मल्लाह भी रहते थे। विरोधियों ने चिदानन्द चौधरी नामक एक मल्लाह को अपनी और मिलाकर यह सिखा दिया कि वह तारणस्वामी को अपनी नाव में बिठाकर ले जावे और गहरे जल में ले जाकर छोड़ दे। चिदानन्द चौधरी ने ऐसा ही किया। उसने स्वामीजी को एक-एक कर तीन बार गहरे जल में ले जाकर डुबाने का प्रयत्न किया पर तीनों बार स्वामीजी जल के बीच चबूतरे पर बैठे हुए पाये गये। इस चमत्कार से प्रभावित होकर चिदानन्द इनका शिष्य बन गया। इस प्रकार इनका प्रभाव बढ़ता गया। तारणस्वामी का निधन सं. 1572 में ज्येष्ठ कृष्णा 6 शुक्रवार को निसई क्षेत्र (मल्हारगढ़, मध्यादेश) में हआ। विदिशा जिले की सिरोंज तहसील के जंगलों में स्थित सेमरखेड़ी भी आपका साधना स्थल रहा है। कहा जाता है कि यही इन्होंने मुनि दीक्षा ली थी। 4. वर्तमान स्थिति __इस प्रकार पन्द्रहवीं, सोलहवीं एवं सत्रहवीं शती में मूर्तिपूजा की विकृतियों के खिलाफ जो क्रांति की लहर उठी और उसके परिणामस्वरूप जिन अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का उद्भव और विकास हुआ, उनके द्वारा आत्मशुद्धि हेतु ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना व सदाचरण का पथ प्रस्तुत किया गया, उससे जागृति अवश्य आयी पर उसका जीवन पर परिवर्तनकारी, स्थायी व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा ऐसा प्रतीत होता है। मूर्तिपूजा के स्थान पर सामायिक, प्रतिक्रमण, दया, पौषध, दान आदि जिन सद्प्रवृत्तियों पर बल दिया गया, वे अपने मूल लक्ष्य 149 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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