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गुणाकरसूरिकृत श्रावकविधिरास सुर विस आमिस महु अनुभाषण, रसविजण किय करइ विचक्षण; दुप्पइ चउपइ वणिज जु लग्गइ, केस वणिज निय मन सु भग्गइ. ॥२८॥ विस कंकसीया हल हथीयारा, गंधक लोह जि जीव हमारा; ऊखल अरहट घरट वणिजइ इम विस वाणिज करइ अणजइ. ॥ २९ ॥ घाणी कोहलू अरहट वाहइ, अन्नु दलि दाजिको कराव इणि परि कहियइ कम्मादाण, जेव पीडा परिहरइ सुजाण. ॥३०॥ जो घणु निग्धण अंक दियावइ, विंधइ नाक मुक्कु छेदावइ; गाइ कन्न गल कंवल कप्पड़, सो निल्लंछण दीसिहिं लिप्पइ. ॥३१॥ कुक्कड कुक्कुर मोर बिलाडइ, पोसंतह नवि होइ भलाइ, सूआ सारहि अनइ पारेवां, धम्म धुरंधर नहीय धरेवा. ॥३२॥ दव देविण घण जीव म मारहू, सरवर द्रह जल सोसु निवारहु; पनरस कम्मादाण विचारू, जाणवि सूधउ करिव ववहारू. ॥ ३३ ॥ धातु धमइ रस अंजण जोअइ, जय ( जुअ ) रमइ इम दविण न होइ; कुविसन एक विसवउ न गमीजइ, निय आगति चिहुं भागिहि कीजइ. ॥३४॥ पहिलउ भाग निधिहि संचारउ, बीजउ पणि ववसाय वधारउ; तीजउ धम्मभोग निग दोस, चउथइ चउपइ पोस. ॥३५॥
॥ वस्तु ॥ निसणि धम्मिय निसुणि धम्मिय कूड तुल माण, कइ कूडा वय हरउ कुड लेह तह साखि कूडी; दुत्थिय दीण सुहासणिय मित्र द्रोह न हु वात रूडी, देव दविणु जो गुरु दविण भक्खय भमइ अणंत; विण संमत्तह सो भमइ, भव संसार अणंत.
॥ ३६॥ ॥ ढाल जिय आहारह तणीय सुद्धि मुणि चारित लीणउ, तिम ववहारह तणीय सुद्धि श्रावक सुकलीणउ;
[श्री आत्मारामजी
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