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________________ चित्त चित्त-विक्षेप क्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश अन्तराय व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रांति दर्शन, अलब्ध भूमिकत्व, अनवस्थित्व लक्षण वास-प्रश्वास दु:ख, दौर्मनस्य, अंगमेजेयत्व, साधना : यम नियम आसन, प्राणायाम परिणाम : प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि (सबीज समाधि, निर्बीज समाधि, धर्ममेध समाधि) श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ ही विषाद् ग्रस्त मानसिकता, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । किंकर्तव्यविमूढ़ता एवं नर्वस ब्रेकडाउन की स्थिति से उबरने के लिये मा कर्मफलहेतुर्भर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।। (गीता २/४७) होता है। सम्पूर्ण गीता संयम और त्याग के आदर्श को जीवन में सम्पूर्ण गीता दिशाहीन मनुष्य को दिशा प्रदान करने का अमोघ उतारने की प्रेरणा देती है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं शास्त्र है। साधन परायण होकर समता तथा त्याग के आदर्श को श्रद्धावाल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रियः । जीवन में उतार कर ही मनुष्य अखण्ड आनन्द, अखण्ड समता, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। (गीता ४/३९) अखण्ड शान्ति एवं जीवन के चरम उत्कर्ष को पा सकता है। अर्थात् संयम, श्रद्धा और साधना की तत्परता द्वारा व्यक्ति उक्त परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन को देखने पर हम पाते हैं कि उसमें शान्ति को पा सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह मन नि:संदेह चंचल अहिंसा, संयम और तप पर सर्वाधिक बल दिया गया है। यह दर्शन है और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु अभ्यास (साधना) स्वसंवेदना का दर्शन है। इसमें कहीं भी पर के प्रति उत्तेजना नहीं है। और वैराग्य से यह वश में होता है। व्यक्ति अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म के द्वारा अपने विकारों और असंशय महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।। विभावों को हटाकर चेतना का चरम विकास कर सकता है। जैन धर्म अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्यण च गृह्यते ।। (गीता ६/३५) में धर्म आराधन के लिये दैनिक जीवन में षट्कर्मों का विधान किया तप तितीक्षा प्रदान करता है। तप द्वारा ही धैर्य और सहनशक्ति गया है। जैसी वृत्तियों का विकास होता है। १. सामायिक, २. २४ तीर्थंकरों की स्तुति, ३. वंदना मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदाः । ४. प्रतिक्रमण ५ कायोत्सर्ग, ६. प्रत्याख्यान । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।। (गीता २/१४) जैन धर्म में सामायिक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामायिक का अर्थात् सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों अर्थ है समता। सम का अर्थ है श्रेष्ठ और अयन का अर्थ है आचरण के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं इसलिए उनको तू सहन करना। यानि आचरणों में श्रेष्ठ आचरण सामायिक है। विषम भावों कर। से हटकर स्व स्वभाव में रमण करना समता है। सामायिक अपने आप त्याग ही क्लेशरहित स्थिति का अर्थात् अखण्ड शान्ति का मूल में समत्व भाव की विशुद्ध साधना है जिसमें साधक की चित्तवृत्ति क्षीर आधार है। इस आदर्श को प्रतिष्ठित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं समुद्र की तरह शांत रहती है और इसीलिए वह नवीन कर्मों का बंध श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।। नहीं करती। आत्मस्वरूप में स्थिर रहने के कारण जो कर्म शेष रहते ध्यानात्कर्मफलत्यागत्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। (गीता १२/१२) हैं उनकी वह निर्जरा करती है। आचार्य हरिभद्र ने लिखा है कि अत: निष्काम कर्म का उद्घोष करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं- सामायिक की विशुद्ध साधना से जीव घातीकर्म नष्ट कर केवलज्ञान सा ० अष्टदशी / 2430 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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