SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहा है, प्रतिस्पर्धा की अन्धी दौड़ में हमारे बच्चे रिश्तों की संवेदना से चिन्ता और शोक से रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब दूर होते जा रहे हैं। स्थितियाँ तो अब यह बन रही हैं कि भोगवृत्ति की प्रकार के कष्टों को सहन करना 'तितीक्षा' कहलाती है। उच्छंखलता सामाजिक रिवाज में परिणत होती सी दिखाई पड़ रही है। शास्त्र और गुरुवाक्यों में सत्यत्व के प्रति आस्था को सज्जनों ने कहीं भौतिक तरक्की की यह महत्वाकांक्षा उस व्यवस्था की ओर तो 'श्रद्धा' कहा है, जो परम तत्त्व की प्राप्ति का हेतु बनती है। नहीं जा रही जिस व्यवस्था के लोगों के लिए भारत जैसे देश में पतिपत्नी का मृत्यु पर्यन्त एकसाथ रहना एक बड़ा आश्चर्य है। ___अपनी बुद्धि को सब प्रकार शुद्ध ब्रह्म में सदा स्थिर रखने को 'समाधान' कहा है। चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है। उक्त भयावह स्थितियाँ हमें प्रेरित करती हैं कि हम अपनी शाश्वत मूल्यवान परम्पराओं से जीवन ऊर्जा ग्रहण करें ताकि एक ___अहंकार से लेकर देहपर्यन्त जितने अज्ञान-कल्पित बन्धन हैं, स्वस्थ और संतुलित समाज व्यवस्था बनाई जा सके। समय-समय पर उनको अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा त्यागने की इच्छा 'मुमुक्षुता' है। भारत भूमि पर अवतारों, तीर्थंकरों, ऋषियों, मनीषियों, संतों ने आदर्शों अंतरंग साधन के अन्तर्गत है- (१) श्रवण, (२) मनन, (३) को अपनी जीवनशैली से प्रत्यक्ष प्रस्तुत कर अपनी उज्ज्वल परम्परा निदिध्यासन। को समृद्ध किया और मानवता को दिशा दी। सभी का सार तत्व था श्रवण का अधिकारी वह व्यक्ति है जिस पर भगवद् कृपा हो, - त्याग और संयम। अथवा जो शरणागत हो अथवा जो विधाता की सृष्टि संरचना को विघ्न भारतवर्ष के विविध धर्म और दर्शनों में त्याग और संयम का मुख्य न पहुँचाते हुए अपने दायित्व का निर्वाह कर चुका हो या कर रहा हो। स्थान रहा है। हमारे यहाँ की विविध साधना प्रणालियाँ त्याग और संयम ऐसा व्यक्ति ही सत्य के श्रवण का अधिकारी है। जैसे उदात्त तत्त्वों के विकास हेतु ही हैं। चाहे जैन परम्परा हो या बौद्ध श्रवण किये हुए सत्य के जिज्ञासु साधक में स्वयंमेव मनन होता परम्परा, वेदान्त के प्रतिपादक आदिशंकराचार्य हों या योग दर्शन के ऋषि है। पातंजल, चाहे उपनिषद शिरोमणि भगवद् गीता हो या रामचरितमानस सभी ने त्याग और संयम की अनिवार्यता पर बल दिया है। श्रवण और मनन किये हुए सत्य को अपने हृदय में स्थापित करना तथा मिथ्या मान्यता को हटाना ही निदिध्यासन कहलाता है। इस दृष्टि से यदि हम आदिशंकराचार्य की साधना पद्धति को देखें अत: उनके अनुसार जिज्ञासु को चाहिये कि कल्याण प्राप्ति के लिये तो उनकी संपूर्ण साधना पद्धति को तीन भागों में विभक्त किया जा चिरकाल तक ब्रह्म चिन्तन करे। आदिशंकराचार्य ने निदिध्यान के १५ सकता है- (१) बहिरंग साधन, (२) अंतरंग साधन और (३) प्रत्यक्ष अंग बतलाये हैंसाधन। बहिरंग साधन के अन्तर्गत है यमो हि नियमस्त्यागो मौनं देशश्च कालतः । आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेकः परिगण्यते । आसनं मूलबन्धश्च देहसाम्यं च दृस्थितिः ।। इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम् ।। प्राणसंयमनं चैव प्रत्याहारश्च धारणा । शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम् । (विवेक-चूड़ामणि १९) आत्मध्यानं समाधिश्च प्रोक्तान्यङ्गानि वै क्रमात् ।। पहला साधन नित्यानित्य-वस्तु-विवेक है, दूसरो लौकिक एवं (अपरोक्षानुभूति १०२, १०३) पारलौकिक सुख-भोग में वैराग्य होना है, तीसरा शम, दम, उपरति, तितीक्षा, श्रद्धा, समाधान-ये छ: सम्पत्तियाँ हैं और चौथा मुमुक्षुता है। यम, नियम, त्याग, मौन, देश, काल, आसन, मूलबन्ध, देह की समता, नेत्रों की स्थिति, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और ___ 'ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है' यह 'नित्यानित्य-वस्तु समाधि-ये क्रम से १५ अंग बतलाये गये हैं। विवेक' कहलाता है। उन्होंने प्रत्यक्ष साधन के अन्तर्गत ४ महावाक्य बताये हैंदर्शन और श्रवण आदि के द्वारा देह से लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण अनित्य भोग्य पदार्थों में जो विराग है वही 'वैराग्य' है। १. प्रज्ञान ब्रह्म (ऋग्वेद) बारम्बार दोष-दृष्टि करने से विषय-समूह से विरक्त होकर चित्त का २. तत् त्वमसि (सामवेद) अपने लक्ष्य में स्थिर हो जाना ही 'शम' है। ३. अहं ब्रह्मास्मि (यजुर्वेद) कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों को उनके विषयों से खींचकर ४. अयमात्मा ब्रह्म (अथर्ववेद) अपने-अपने गोलकों में स्थित करना 'दम' कहलाता है। वृत्ति का बाह्य ऋषि पातंजल प्रणीत योगदर्शन के अनुसार साधना प्रणाली को विषयों का आश्रय न लेना यही उत्तम 'उपरति' है। संक्षेप में हम इस प्रकार देख सकते हैं ० अष्टदशी / 2420 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy