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________________ जैन परंपरा में असंख्य नारियों ने कर्मों का क्षय करके थी कि रथनेमि की दृष्टि उस पर पड़ गई। मोहित और कामांध मोक्ष प्राप्त किया है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जो आदिनाथ के रथ नेमि के अभ्रद्र प्रस्ताव को सुनकर उसे प्रताड़ित करती हुई रूप में पूजे जाते हैं, की माता मरुदेवी सिद्धत्व को पानेवाली राजुल कहती है। पहली सन्नारी थी। नाभिराय और मरुदेवी पावन दंपति थे, पक्खंदेजलियं जोइं धूमकेउं दुरासयं। जिनकी दिव्य संतति थे ऋषभदेव। इनके दो पुत्र भरत और णेच्छति वन्तयं भोत्तुं कुले जाया अगन्धणे। बाहुबली तथा दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी क्रमश: सुमंगला और धिरत्थु तेडजसो कामी जो तं जीविय कारणा। सुनंदा की कुक्षी से उत्पन्न हुए थे। कहते हैं अक्षरों का प्रवर्तन वन्तं इच्छासि आवेळ सेयं ते मरणं भवे। ब्राह्मी ने किया था और अंकों का सुंदरी ने। इन दोनों बहिनों ने (उत्तराध्ययन २२/४२-४३) अपने भाई बाहुबली को प्रबोधन देकर अहंकार से छुटकारा अर्थात् अगंधन कुल का सर्प आग में जल कर मर जाना दिलाया था जिससे वे मुक्ति का वरण कर सके। यथाः पसंद करेगा, पर वमन किये हुए विष को पीना कभी नहीं चाहेगा, आज्ञापयाति तातस्त्वां ज्येष्ठार्य भगवनिदम् । हे कामी, तू वमन की हुई चीज को पीना चाहता है, इससे तो हस्ती स्कन्धा रूढानां केवलं न उपद्यते।। तेरा मर जाना ही अच्छा है। कितनी तीव्र व्यंजना थी। जिसे भ्राता अर्थात् हे ज्येष्ठ आर्य! भगवान का उपदेश है कि हाथी अरिष्ट नेमि त्याग चुके थे। उसे भोगने की इच्छा करना की हुई पर बैठे साधक को कैवल्य की प्राप्ति नही होती। बाहबली ने मन उल्टी को निगलना ही तो था। रथनेमि की आँखें खुल गई। ऐसी में विचार किया कि वे अहंकार रूपी हाथी पर ही तो आरूढ हैं। ही फटकार तुलसीदास जी को रत्नावली ने भी लगाई थी। क्षण भर में गर्व चूर-चूर हो गया और पश्चाताप के साथ निर्मल उत्तराध्ययन सूत्र, जिसमें तीर्थंकर महावीर के वचन संग्रहीत हैं, विनय भाव के उदित होते ही मुक्ति श्री ने जयमाला उनके गले यह प्रसंग उल्लिखित है। इसे यहाँ उद्धृत करने का ध्येय यह में डाल दी। इस प्रकार ब्राह्मी और सुन्दरी ने केवल स्वयं का दर्शाना है कि जैन संस्कृति में नारी के शील और सतीत्व को ही नहीं, अपने भाई का भी आत्मोद्धार कर दिया। बहुत महत्व दिया गया है। अस्तु, जैन धर्म में नारियों को सदैव सम्मान की दृष्टि से सतीतत्व अर्थात् चारित्रिक शुद्धता में नारी की महीयता देखा गया है। उद्बोध न देकर पुरुषों को सुधारने और उन्हें मानी जाती थी। जैन जगत में सती उन नारियों को कहा जाता सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करने वाली सन्नारियों के सैकड़ों दृष्टांत है जो अपने शील की रक्षा, धर्म के पालन और संयम साधना इतिहास में उजागर हुए हैं। एक ऐसा ही प्रेरक उदाहरण है सती में अडिग रहकर अपनी आत्मा का उद्धार करती है। जैनराजीमती का। महाभारत काल में श्रीकष्ण के चचेरे भाई थे इतिहास में सोलह सतियाँ नित्य वंदनीय मानी गई हैं। उनसे अरिष्टनेमि। वे वसुदेव भ्राता शौरिपुर के राजा समुद्रविजय और प्रार्थना की जाती है कि वे मानव जाति का मंगल करें। यथा : महारानी शिवा देवी के पुत्र थे। उनका विवाह महाराज उग्रसेन ब्राह्मी चंदनबालिका भगवती राजीमती द्रौपदी। की पुत्री राजुल के साथ निश्चित किया गया। अरिष्ट नेमि की कौशल्याच मृगावती च सुलसा सीता सुभद्रा शिवा। बारात जब नगर के समीप पहुँचती तो पशु-पक्षियों का आर्तनाद कुन्ती शीलावती नलस्य दायिता चूला प्रभावत्यपि। सुनाई दिया। यह पता चलने पर कि बारात के सत्कार व भोज पद्मावत्यपि सुन्दरी दिनमुखेकुर्वन्तु नो मङ्गलम् ।। की व्यवस्था के लिए सामिष आहार हेतु पशु-पक्षियों का वध जैन दृष्टि अनेकांतवादी और उदार रही है। ऐसे अनेक किया जायेगा। अरिष्टनेमि का हृदय काँप उठा और वे दूल्हे के दृष्टांत मिलते हैं जहँ एक ही छत के नीचे रहनेवाले पति पत्नी, वेश को तत्क्षण उतारकर अरण्य की ओर प्रस्थान कर गये। सास-बहू आदि परिजन धार्मिक दृष्टि से स्वयं को स्वतंत्र अनुभव विवाह-मंडप में सन्नाटा छा गया। वधू राजकुमारी राजुल को करते थे। महावीर और बुद्ध समकालीन थे। एक ही परिवार में जब अरिष्ट नेमि के निष्क्रमण का पता चला, तो वे भी उनका दोनों के अनुयायी प्रेम से रहते थे। कालांतर में यह व्यवस्था अनुसरण करती हुई गिरनार पर्वत पर साधना के लिए चली गई। छिन्न-भिन्न अवश्य हो गई पर तत्कालीन धार्मिक सहजीवन से अरिष्ट नेमि के छोटे भाई ने भी साधना स्वीकार कर ली। उसका पता चलता है कि महिलाओं को अपने-अपने भावों के अनुरूप नाम था रथनेमि। एक बार वर्षा में भीगकर साधिका राजीमती उपासना करने की स्वतंत्रता थी। इससे नारी के प्रति उदार एक कंदरा में जाकर अपने गीले वस्त्रों को एकांत में सुखा रही दृष्टिकोण का पता चलता है। आधुनिक समय में भी कई जैन परिवारों में उपासना की स्वतंत्रता देखी जा सकती है। ० अष्टदशी / 2360 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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