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________________ विसर्जन को अपरिग्रह व्रत कहा है। इस व्रत को ग्रहण करने से महावीर ने षट्जीवनिकाय अर्थात् जीवों के छ: वर्गों का जीवन में सादगी, मितव्ययिता और शांति का अवतरण होता है। उपदेश दिया है जो जीवों के प्रति दया या करुणा के भाव को भगवान महावीर ने केवल भौतिक स्तर को ही ऊँचा दर्शाता है। आत्मौपत्य का उपदेश उन्होंने इसलिए दिया कि जिस करने का मार्ग नहीं बताया है, अपितु यह कहा है कि व्यक्ति का प्रकार हमें दुःख अप्रिय है और हम केवल सुख चाहते हैं उसी आभ्यंतरिक तप, स्वावलम्बन और स्व-पुरुषार्थ से बन्धन मुक्त प्रकार किसी भी जीव को दु:ख प्रिय नहीं है, वे भी सुख की होना भी है। प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र है। कोई परतन्त्र नहीं है। सभी कामना करते हैं। अत: किसी को किसी प्रकार की पीड़ा या को अपनी उन्नति एवं मुक्ति का प्रयास स्वयं ही करना होगा। दु:ख नहीं देना चाहिए। इसलिए अहिंसा का मार्ग उन्होंने सर्वोपरि कोई किसी को मुक्त नहीं कर सकता है। अपने द्वारा किये गये बताया। जैन आचार में श्रमण एवं गृहस्थ दोनों के लिए अलगकार्य का परिणाम स्वयं को ही भोगना होता है। मुक्ति प्राप्त करने अलग विधान किये गये हैं। श्रमण को पूर्ण आचार का तथा के लिए शुद्ध भावना, ज्ञान, अहिंसा एवं सत्य ही पर्याप्त है, व्यर्थ गृहस्थ को आंशिक आचार के पालन का विधान है। जितना का कायक्लेश करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। उमास्वाति ने आवश्यक हो उतना करें अन्यथा उसका त्याग कर दें। 'तत्त्वार्थसूत्र' में मोक्षमार्ग का निरूपण करते हुए कहा है प्राचीन भारत के धार्मिक इतिहास में भगवान महावीर सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः। . प्रबल और सफल क्रान्तिकारी के रूप में उपस्थित होते हैं। __ भगवान महावीर ने प्रत्येक जाति एवं वर्गों में समानता का उनकी धर्मक्रान्ति से भारतीय धर्मों के इतिहास का नवीन अध्याय उपदेश दिया है। उन्होंने कहा भी है कि उच्चवंश या कुल में प्रारम्भ होता है। वे तत्कालीन धर्मों का कायाकल्प करने वाले जनम लेने से कोई बड़ा नहीं होता है, अपितु ऊँचे कर्मों से ही और उन्हें नवजीवन प्रदान करने वाले युग निर्माता महापुरुष हुए। वह उच्च बनता है। किसी जाति या धर्म विशेष में जन्म लेने से विश्व में अहिंसा की प्रतिष्ठा का सर्वाधिक श्रेय इन्हीं महामानव मुक्ति नहीं होती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म से चाहे किसी भी महावीर को है। सचमुच भगवान महावीर मानव जाति के महान् धर्म का क्यों न हो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। सभी प्राणियों त्राता के रूप में अवतरित हुए। में चेतना समान होती है। कोई भी जन्म से पतित या श्रेष्ठ नहीं भगवान महावीर की अहिंसा प्रधान उपदेश-प्रणाली ने हो सकता। हरिजन भी अपनी उन्नति उतनी ही कर सकता है आचार और व्यवहार में अहिंसा की पनः प्रतिष्ठा की। उन्होंने जितना की एक राजा। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में तो कहा भी गया है अपने संघ में नारी को भी पुरूष के समान अधिकार देकर स्त्री कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुण होइ खत्तिओ। स्वातन्त्र्य की प्रतिष्ठा की और उसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। वइस्से कम्मुणा होइ, सुद्धो हवइ कम्मुणा।।२५/३३ तप और संयम का महत्व है, जाति की कोई महत्ता नहीं है, यह अर्थात् कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कहकर चाण्डाल पुत्र हरिकेशी को भी मुनि संघ में स्थान दिया कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। सभी समान और उसे ब्राह्मणों के यज्ञ वाड़े में भेजकर पूजनीय बना दिया। एवं स्वतंत्र है। आज के मानव में समानता, स्वतंत्रता एवं युगपुरुष महात्मा गांधी ने जिन-जिन साधनों के सहारे विश्वबन्धुत्व कहाँ है? जैन दर्शन में यह पूर्ण रूप से स्वीकृत विश्व को आश्चर्यचकित किया उनका मूल जैनधर्म में ही था। है। इन भावनाओं को जागृत करके ही मानव का कल्याण किया अहिंसा और सत्य का सिद्धान्त, अस्पृश्यता निवारण का जा सकता है। जैन दर्शन के यथार्थवाद, अनेकान्तवाद, सिद्धान्त, नारी जागरण, सामाजिक साम्य, ग्राम्यजनों का सधार अपरिग्रहवाद. अहिसा, अचौर्यव्रत आदि के द्वारा आध्यात्मिक आदि कार्यों के लिए गांधी जी ने भगवान महावीर के सिद्धान्तों उन्नति संभव है। आध्यात्मिक उन्नति के बाद भारत का ही नहीं। से प्रेरणा प्राप्त की थी। महात्मा गांधी की शिक्षाओं का उद्गम सम्पूर्ण विश्व का कल्याण संभव है। संसार में जितने भी भगवान महावीर की शिक्षाओं में है। महावीर ने जिस-जिस क्षेत्र महापरुष जन्म लेते हैं वे सभी प्राणी जगत का उद्धार करने के में प्रवेश किया उसमें सफलता प्राप्त की। उनका सबसे प्रधान लिए संसार को अपना संदेश अवश्य देते हैं। 'स्थानांगसूत्र' (८/ कार्य था हिंसा का विरोध। उस दिशा में उन्हें जो सफलता मिली १११) में भगवान महावीर ने भी जन-जन के कल्याण के लिए वह इसी बात से प्रकट होती है कि अब हिंसक यज्ञों की प्रथा आठ सन्देश दिये हैं- जो धर्मशास्त्र नहीं सुना उसे सुनो, जो सुना प्राय: लुप्त-सी हो गई है। भगवान महावीर में उपदेश प्रदान करने उसे याद रखो, नवीन कर्मों को रोको, पूर्वकृत कर्मों का नाश की जैसी अनुपम कुशलता थी, वैसी ही अपने अनुयायियों की करो, जिसका कोई नहीं तुम उसके बनो, अशिक्षितों को शिक्षित व्यवस्था करने की अद्वितीय क्षमता भी थी। भगवान के द्वारा करो, रोगियों की ग्लानि रहित होकर सेवा करो, निष्पक्ष होकर । अपने संघ की जैसी व्यवस्था की गई है, वैसी इतिहास के पन्नों क्लेश मिटाओ। ० अष्टदशी / 2330 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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