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________________ लेकिन इस विवेचन का यह अर्थ यह नही लेना चाहिये कि इस प्रकार जैन धर्म कर्तव्य-पालन से विमुख रहने की जैनधर्म के सिद्धान्त अव्यावहारिक तथा आधुनिक जीवन से मेल शिक्षा नहीं देता। जैनधर्म कहता है कि अहिंसा शूरवीरों का धर्म नहीं खाते। यह एक अत्यंत भ्रांत धारणा है, जिसका निराकरण है, कायरों का नहीं। होना आवश्यक है। जैनधर्म पुरुषार्थवादी धर्म है। यह प्रत्येक क्षेत्र में विवेकपूर्वक भगवान महावीर ने धर्म-प्रचारार्थ चतुर्विध संघ की स्थापना कार्य करने का निर्देश देता है। जो विवेक पूर्वक कार्य करता की। श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविका। उन्होंने श्रमण-श्रमणियों है, वह कर्मबंध नहीं करता। दशवैकालिक सूत्र में कहा हैके लिए पंच महाव्रतों का पालन करना अनिवार्य बतलाया तथा "जयं चरे, जयं चिढ़े, जयमासे, जयं सए। काफी कठिन चर्या का निर्धारण किया। इसका कारण था श्रमण जयं भुजुतो भासंतो, पावकम न बंधई।।" श्रमणियों को आत्म-साधना के कठिन मार्ग में जीवन व्यतीत -दशवैकालिक सूत्र ४/८ करना था। वे किसी एक स्थान पर (चातुर्मास के काल के अर्थात् साधक विवेकपूर्वक चले, विवेकपूर्व खड़ा हो, अतिरिक्त) नहीं रह सकते थे तथा पैदल विहार करते थे। अपने विवेकपूर्वक सोये। इस प्रकार विवेकपूर्वक सब क्रियाओं को साथ में संयम-साधना के लिए आवश्यक उपकरणों के अतिरिक्त करता हुआ विवेकपूर्वक भोजन करता हुआ व संभाषण करता कुछ नहीं रख सकते थे। हुआ वह पाप कर्म का बंध नहीं करता। लेकिन गृहस्थों के लिए उनके नियम अपेक्षाकृत सरल थे। भगवान महावीर के उपदेश मानव को मैत्रीपूर्ण, नैतिक एवं श्रावक से उनकी अपेक्षा थी कि वह पाँच अणव्रतों का पालन प्रामाणिक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। अहिंसा, समता, करे। प्राणी वध (हिंसा), असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य व अपरिमित सरलता एवं अपरिग्रह के सिद्धांतों का पालन करने से करना (परिग्रह) इन पाँच पापों से सापवाद अपने सामर्थ्य के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का अनुसार विरत होना अणुव्रत है। इसी प्रकार उससे तीन गुण-व्रतों । शांतिपूर्ण ढंग से विकास हो सकता है तथा विश्व में शान्ति की एवं चार शिक्षाव्रतों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है। श्रावक का जीवन पूर्णत: सदाचारयुक्त होना चाहिये। वह स्थापना हो सकती है। प्रामाणिकता सच्चरित्रता से जीवन बिताये यह अपेक्षित है। विशेषत: उसके लिए सात प्रकार के दुर्व्यसनों से विरत रहना आवश्यक है। ये व्यसन हैं "जूयं मज्जं मंसं वसा, पारद्धि चोर परयार। दुग्गइ-गमणस्सेदाणि, हेड भूणाणि पावाणि।।" -वसुनन्दि श्रावकाचार, ५९ अर्थात् जुआ, मांस-भक्षण, वैश्यागमन, मद्यपान, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन-ये सात व्यसन हैं। मांसाहार से दर्पउन्माद बढ़ता है। दर्प से मनुष्य में मद्यपान की अभिलाषा जगती है और तब जुआ खेलता है। इस प्रकार एक मांसाहार से ही मनुष्य उपर्युक्त अनेक दोषों को प्राप्त हो जाता है। आज भारतवर्ष में लगभग एक करोड़ व्यक्ति जैन धर्म का पालन करते हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा शाकाहारी संगठन है। प्राचीनकाल में अनेक राजा, महाराजा एवं व्यवसायियों ने इस धर्म का पालन किया तथा सफलतापूर्वक अपना जीवन बिताया था और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। मौर्यकाल, नन्दवंश एवं गुजरात तथा कलिंग के अनेक शासक महावीर के अनुयायी थे एवं उन्होंने अनेक युद्धों में भाग लिया था। महान योद्धा चामुण्डराय १७ युद्धों में लड़े थे तथा विजेता बने थे। ● अष्टदशी/2100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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