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________________ जा वर देह व दृश्यमान वस्तुओं (शरीर संसार लोक से व्युत्सर्ग से मनोज्ञ विषयों के प्रति राग और अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष (सम्बन्ध विच्छेद) होते ही अहम् और मम का नाश हो जाता है। उत्पन्न होता है। रागोत्पत्ति से इन्द्रियाँ विषयों की ओर, मन इन्द्रियों अहम् का नाश होते ही निरहंकार होने से अनन्त से एकता तथा की ओर, बुद्धि मन की ओर गति करने लगते हैं, इस प्रकार बुद्धि, अभिन्नता हो जाती है जिससे अविनाशी अनन्त तत्व अमरत्व मन, इन्द्रियाँ सबकी संसार या बाह्य की ओर गति होने लगती है, की अनुभूति हो जाती है। मम का नाश होते ही सब विकारों का और हम बहिर्मुखी हो जाते हैं, तथा कामना ममता, अहंता में नाश होकर निर्विकार, वीतराग, शुद्ध चैतन्य (सच्चिदानन्द) आबद्ध होकर सुख-दुःख का भोग करने लगते हैं। स्वरूप का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार ध्यान व व्युत्सर्ग से इस प्रकार इन्द्रिय दृष्टि से समस्त विषय सुन्दर, सुखद व सब पापों (विकारों) का नाश होकर आत्मा विशुद्ध एवं सत्य (स्थायी, नित्य) प्रतीत होते हैं। इस इन्द्रिय-दृष्टि का प्रभाव सर्वशल्यों से मुक्त हो जाती है, अर्थात् ध्यान से ध्याता को ध्येय मन पर होता है तब मन इन्द्रियों के अधीन होकर विषयों की ओर की उपलब्धि हो जाती है। गतिशील होता है। परन्तु जब मन पर श्रुतज्ञान युक्त बुद्धि दृष्टि जिज्ञासा होती है कि क्या शरीर, इन्द्रिय, संसार वस्तु तथा का प्रभाव होता है तब इन्द्रिय-द्दष्टिजनित विषय सुन्दर, सुखद इनकी सक्रियता के बिना भी जीवन है? यदि जीवन है तो वह व सत्य है- यह प्रभाव मिटने लगता है। क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान से जीवन कैसा है? जो वस्तु सत्य, स्थायी व सुन्दर मालूम होती है वह ही वस्तु समाधान- यह सभी का अनुभव है कि शरीर. इन्द्रियाँ, श्रुतज्ञान से, विवेकवती, बुद्धि से नश्वर तथा विध्वंसनशील. मन, बुद्धि आदि की क्रियाओं, प्रवृत्तियों व विषयों का निरोध होने जीर्ण-शीर्ण गलन रूप मालूम होती है। इस ज्ञान से विषय व वस्तु पर ही गहरी निद्रा आती है। उस समय इन सबकी स्मृति व के प्रति विरति (वैराग्य-अरुचि) होती है और मन विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता है। उस अवस्था में दुःख का अनुभव नहीं विमुख होने लगता है। इन्द्रियाँ विषयों से विमुख हो स्वत: मन होता है। परन्तु जगने पर व्यक्ति यह ही कहता है कि मैं बहुत में विलीन हो जाती है। मन बुद्धि में विलीन हो जाता है फिर बुद्धि सुख से सोया, यह नियम है कि स्मति उसी की होती है, जिसकी सम हो जाती है। उस समता में स्थित आत्मा सब मान्यताओं से अनुभूति होती है। गहरी निद्रा में किंचित भी दु:ख नहीं था, मात्र अतीत हा जाता है जिसस सब प्रकार के प्रभावी का अर्थात् भाग, सुख ही था। इस अनुभूति से यह सिद्ध होता है कि शरीर. कामनाओं, वासनाओं आदि दोषों की निवृत्ति हो जाती है। इन्द्रियाँ, मन, संसार वस्तु आदि के बिना भी, इनके न रहने पर इन्द्रिय-दृष्टि से विषय-वस्तुओं में सत्यता प्रतीत होती है। भी दु:खरहित सुखपूर्वक जीवन का अनुभव सम्भव है। किन्तु उसका प्रभाव राग उत्पन्न करता है। राग भोग में प्रवृत्त करता यह जड़तापूर्ण स्थिति है, अत: इस अनुभव का आदर न करने है, किन्तु विवेक दृष्टि (श्रुतज्ञान) विषय-सुखों की क्षण-भंगुरता से ही प्राणी शरीर, संसार, वस्तु, व्यक्ति आदि के वियोग से का ज्ञान कराती है, जिससे राग वैराग्य में और भोग योग भयभीत होता है और इनकी दासता को बनाये रखता है। यदि (संयम) में रूपान्तरित हो जाता है वह इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि जाग्रत अवस्था में भी गहरी निद्रा के विश्राम के समान स्थिति के द्रष्टा में विषय-सुखों से, सब मान्यताओं से अतीत होनेप्राप्त कर ली जाय तो यह स्पष्ट अनुभव हो जायेगा कि शरीर, इनके रागजनित प्रभावों से मुक्त होने की क्षमता आ जाती है। संसार आदि की क्रिया के बिना भी जीवन है और उस जीवन जिससे शरीर व शरीर से सम्बन्धित गण, उपाधि आदि से व्युत्सर्ग में किसी प्रकार का अभाव, अशान्ति, पराधीनता, जड़ता, चिन्ता, हो जाता है। विषय सुखों के प्रभाव से मुक्त होने पर कषायभय तथा दुःख नहीं है। अत: शरीर, संसार व भोग के सुख के विसर्जन (व्युत्सर्ग), कषाय-व्युत्सर्ग से कर्म-व्युत्सर्ग ओर बिना जीवन नहीं है- इस भ्रान्ति को त्यागकर शरीर, संसार, कर्म-व्युत्सर्ग से संसार-व्युत्सर्ग स्वतः हो जाता है। आचारांग कषाय (भोग-प्रवृत्ति) व कर्म का व्युत्सर्ग-विसर्जन कर शान्ति, सूत्र की भाषा में कहें तो "जे कोहदंसी से माणंदसी, जे स्वाधीनता, चिन्मयता, निश्चिन्तता, निर्भयता, प्रसन्नता, अमरता माणदंसी से मायदंसी, जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदेसी की अनुभूति कर लेना साधक के लिए अनिवार्य है। यही सिद्ध, से पेज्जदंसी, जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से बुद्ध व मुक्त होना है। मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, ___"मैं देह हूँ" - इस मान्यता के दृढ़ होते ही इन्द्रिय,मन, बुद्धि जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे आदि में भी 'मैं' की मान्यता हो जाती है, जो समस्त दोषों की नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी से जननी है। कारण कि जब इन्द्रिय और मन का अपने विषयों से मेहावी अभिणिवट्टिज्जा कोहं च माणं च मायं च लोभं च सम्बन्ध होता है तब शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श से सम्बन्धित पेज्जं च दोसं च मोहं च गब्भं च मारं च नरयं च तिरियं च मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों का ज्ञान होता है। इस ज्ञान के प्रभाव। दुक्खं च। एयं पासगस्स दंसणं उवरय-सत्थस्स पलियंत करस्स आयाणं निसिद्धा सगडस्मि किमस्थि आवोही पासगस्स ० अष्टदशी / 2010 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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